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________________ ११२ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना ऊपर लिखा जा चुका है कि माथुरी और वालभी-ये दोनों वाचनाएँ करीब एक ही काल में संपन्न हुई थीं, और इससे यह कहने की आवश्यकता ही नहीं रहती कि आचार्य स्कंदिल और नागार्जुन समकालीन स्थविर थे । परंतु दुर्भाग्य की बात यह है कि उक्त वाचनाओं का महान् कार्य संपन्न होने के बाद इन सिद्धांतोद्धारक दोनों महास्थविरों का आपस में मिलना नहीं हुआ, इससे उक्त दोनों वाचनाओं में जहाँ कहीं कुछ भिन्नता रह गई थी वह वैसे ही रह गई, जिसका आज तक टीकाओं में उल्लेख पाया जाता है । देवद्धिगणि का पुस्तक लेखन उपर्युक्त वाचनाओं को संपन्न हुए करीब डेढ़ सौ वर्ष से अधिक देखो मूल पाठ-"इह हि स्कंदिलाचार्यप्रवृत्तौ दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्त्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत् । ततो दुर्भिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् । तद्यथा-एको वलभ्यामेको मथुरायाम् । तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परवाचनाभेदो जातः । विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः ।" -ज्योतिषकरण्डक टीका । ७५. इस विषय में कथावलीकार कहते हैं कि 'सिद्धांतों का उद्धार करने के बाद स्कंदिल और नागार्जुन सूरि परस्पर मिल नहीं सके, इस कारण से इनके उद्धार किए हुए सिद्धांत तुल्य होने पर भी उनमें कहीं कहीं वाचना-भेद रह गया, जिसको पिछले आचार्यों ने नहीं बदला और टीकाकारों ने अपनी टीकाओं में 'नागार्जुनीय ऐसा पढ़ते हैं' इत्यादि उल्लेख करके उन वाचना भेदों को सूचित किया है ।' देखो इस विषय का प्रतिपादक कथावली का मूल लेख "परोप्परमसंपण्णमेलावा य तस्समयाओ खंदिल्लनागज्जुणायरिया कालं काउं देवलोगं गया । तेण तुल्लयाए वि तदुद्धरियसिद्धताणं जो संजाओ कथय (कहमवि) वायणाभेओ सो य न चालिओ पच्छिमेहिं । तओ विवरणकारेहिं पि नागज्जुणीया उण एवं पढन्ति त्ति समुल्लिंगिया तहे वायाराइसु ।" - कथावली २९८ । ७६. कतिपय जैन विद्वानों की यह मान्यता है कि स्थविर देवद्धिगणिजी ने वलभीपुर में सिद्धांतों को पुस्तकों में लिखाया, उसी घटना का नाम 'वालभी वाचना' है, और इस कारण से वे स्कंदिल और देवद्धि को प्राय: समकालीन भी मान लेते हैं । इस मान्यता के उदाहरण के तौर पर हम उपाध्याय विनयविजयजी के लोकप्रकाश का एक अंश पाठकगण को भेंट करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
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