SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर निर्वाण संवत् और जैन काल-गणना "xxx दो वि जणा वतिदिसं गया, तत्थ जियपडिमं वंदित्ता अज्जमहागिरी एलकच्छं गया गयग्गपदवंदया, तस्स एलकच्छं नामं ? तं पुव्वं दसण्णपुरनगर मासी x x x ताहे दसण्णपुरस्स एलकच्छं नामं जायं । तत्थ गयग्गपययो पव्वओ । x x तत्थ महागिरी भत्तं पच्चक्खाय देवत्तं गया । सुहत्थी वि उज्जेणि जियपडिमं वंदया गया ।" 'अर्थात् (पाटलिपुत्र से) विहार कर दोनों (आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती) विदिशा (आजकल का भिल्सा) गए और वहाँ जीवित प्रतिमा को वन्दन कर आर्य महागिरि एडकाक्ष (दशार्णपुर) के गजाग्रपद तीर्थ की वन्दना करने गए और वहाँ (गजाग्रपद तीर्थ) पर अनशन करके वे स्वर्गवासी हुए और आर्य सुहस्ती विदिशा से उज्जयिनी में जीवितप्रतिमा को वन्दन करने को गए ।' आवश्यक सूत्र के उपर्युक्त लेख से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विदिशा से आर्यमहागिरि गजाग्रपद पर जाके स्वर्गवासी हो गए । उसके बाद आर्य सुहस्ती उज्जयिनी में जीवितस्वामी को वन्दन करने को आए थे और उसके बाद उन्होंने संप्रति को जैन बनाया । इस अवस्था में संप्रति के संकेत से साधुओं को राजपिंड का मिलना और उसके निमित्त आर्यसुहस्ती से आर्य महागिरि का जुदा होना यह बात सत्य नहीं हो सकती ।। संभव है कि आर्यमहागिरि और सुहस्ती के समय के दुर्भिक्ष में राजा बिंदुसार ने अपनी राजधानी में दानशालाएँ खोली होंगी जिनसे कि साधु ब्राह्मणादि को भोजन मिलता रहे । उस समय का युवराज अशोक उज्जयिनी का शासक होगा और उसने भी राजा का अनुसरण करके वहाँ दानशालायें बनवाईं होंगी, जैसा कि बौद्ध उल्लेखों से सूचित होता है । परन्तु जैन श्रमण ७०. बौद्धों के महावंश के ५ वें परिच्छेद के २३ वें श्लोक में कहा है कि 'अशोक का पिता राजा बिंदुसार नित्य ६०००० (साठ हजार) ब्राह्मणों को भोजन कराता था । उसी प्रकार अशोक भी तीन वर्ष तक ब्रह्मभोज कराता रहा ।' देखो महावंश का वह श्लोक "पिता सट्ठिसहस्सानि, ब्राह्मणे ब्रह्मपक्खिके । भोजेसि सो पिते येव, तीणि वस्सानि भोजयि ॥२३।। - महावंश प० ५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002752
Book TitleVir Nirvan Samvat aur Jain Kal Ganana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherShardaben Chimanbhai Educational Research Centre
Publication Year2000
Total Pages204
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy