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धर्मरसायन
स एवं विलपन् पुण्यावसानेऽशरणः सन् । मूलच्छिन्नोऽपि द्रुमः निपतति अधोमुखो दीनः ||93||
इस प्रकार विलाप करता हुआ वह दीन जीव पुण्यों के समाप्त हो जाने पर असहाय होकर अधोगति को प्राप्त होता है, जैसे कि जड़ के कट जाने पर वृक्ष नीचे की ओर गिर पड़ता है।
एवं देवगई सम्मत्ता । एवं देवगतिः समाप्ता ।
इस प्रकार देवगति का वर्णन समाप्त हुआ ।
एवं अण्णइकाले जीओ संसारसायरे घोरे । परिहिंडडु अलहंतो धम्मं सव्वण्हुपण्णत्तं ॥94|| एवमनादिकाले जीवः संसारसागरे घोरे । परिहिण्डते अलभमानो धर्मं सर्वज्ञप्रणीतम् ||94||
इस प्रकार जीव सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित धर्म को प्राप्त न करके अनादिकाल से घोर संसार - सागर में भटक रहा है।
परिचइऊण कुधम्मं तम्हा सव्वण्डुभासिओ धम्मो । संसाररूत्तरण गहियव्वो बुद्धिमंतेहिं ॥95||
परित्यज्य कुधर्मं तस्मात् सर्वज्ञभाषितो धर्मः । संसारतरणार्थं गृहीतव्यो बुद्धिमद्भिः ||95||
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अतः बुद्धिमानों को धर्म का परित्याग करके संसार को पार करने के लिए सर्वज्ञ के द्वारा उपदिष्ट धर्म को ग्रहण करना चाहिए ।
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