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________________ 21 -धर्मरसायन नरके स्वभावेन दुःखं भवति स्वभावेन शीतोष्णेच। तथा भवतः दुःसहे घोरे क्षुत्तृष्णे ||66।। नरक में स्वभावतः ही दुःख होता है तथा स्वभावतःही सर्दी-गर्मी होती है। उसी प्रकार वहाँ स्वभावतःदुःसह घोर भूख-प्यास होती है। जइ वि खिविज्जे कोई णरए गिरिरायमेत्तलोडंडं । धरणियलमपावेंतो उण्हेण विलिज्जए सव्वो 1671 यद्यपिक्षिपेत्कश्चित्नरगिरिराजमात्रलोहरवण्। धरणीतलमप्राप्नुवन् उष्णेन विलीयते' सर्वः ।।67|| यदि कोई उष्ण नरक भूमि पर पर्वतराज के बराबर लोहे का टुकड़ा फैंके तो वह लौहखण्ड भूमि पर पहुँचने से पहले ही (पिघलकर) विलीन हो जाता है। (यहाँ नरकवास की तीव्रतम उष्णता का चित्रण है।) तित्तियमेत्तो लोहो पज्जलिओ सीयणरयमज्झम्मि। जइपिक्खिविज्जे कोईसडिजभूमिमपावंतो 168॥ तावन्मानं लोहं प्रज्वलितं शीतनरकमध्ये । यदि प्रक्षिपेत् कश्चित् घनीभवति भूमिमप्राप्नुवन् ।।68।। उतना ही (पर्वतराज के बराबर) प्रज्वलित अर्थात् पिघला हुआ लोहे का टुकड़ायदि कोईशीतनरक केमध्य फैंकेतो वह भूमि पर पहुँचने से पहले ही ठोस रूप धारण कर लेता है। (यहाँ नरकवास की तीव्रतमशीतवेदना का चित्रण है।) 1. द्रवीभवति 2. द्रवीभूतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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