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________________ सिरिपउमणंदिमुणिणा रइयं धम्मरसायणं णमिऊण देवदेवं धरणिंदणरिन्दइंदथुयचलणं । णाणं जस्स अणंतं लोयालोयं पयासेइ ॥1॥ वुहजणमणोहिरामं जाइजरामरणदुक्खणासयरं । इहपरलोयहिज (द) त्थं तं धम्मरसायणं वोच्छं ॥2॥ नत्वा देवदवं धरणीन्द्रनरेन्द्रस्तुतचरणं । ज्ञानं यस्यानन्तं लोकालोकं प्रकाशयति ||1|| बुधजनमनोभिरामं जातिजरामरणदुःखनाशकरम्। इहपरलोकहितार्थं तं धर्मरसायनं वक्ष्ये ||2|| • धर्मरसायन धरणेन्द्र, नरेन्द्र तथा इन्द्र के द्वारा जिनके चरणों की स्तुति की जाती है तथा जिनका अनन्त ज्ञान लोक और अलोक को प्रकाशित करता है अर्थात् जानता है, उन देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्मा को नमस्कार करके मैं धर्म के उस रसायन (अमृत) का वर्णन करता हूँ जो विद्वज्जनों के हृदय को तृप्त करने वाला है; जन्म, जरा तथा मृत्यु दुःखों का विनाशक है और इहलोक - परलोक के लिए हितकारी है। धम्मो तिलोयबंधू धम्मो सरणं हवे तिहुयणस्स । धम्मेण पूयणीओ होइ णरो सव्वलोयस्स ॥3॥ धर्मः त्रिलोकबन्धुः धर्मः शरणं भवेत् त्रिभुवनस्य । धर्मेण पूजनीयः भवति नरः सर्वलोकस्य || || Jain Education International धर्म तीनों लोकों अर्थात् तिर्यक्लोक, ऊर्ध्वलोक, एवम् अधोलोक का बन्धु (मित्र) है। तीनों लोकों का शरणस्थल धर्म ही है। धर्म से ही मनुष्य समस्त लोकों का पूजनीय होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002751
Book TitleDharmrasayana
Original Sutra AuthorPadmanandi
AuthorVinod Sharma
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size3 MB
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