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--- इस प्रकार वृषभदास सेठ के चिन्तवन से ही मानो आकृष्ट हुए सागरदत्त सेठ स्वयं ही आ उपस्थित हुए। ग्रन्थकार कहते हैं कि सागरदत्त सेठ के इस प्रकार अचानक स्वयं आजाने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि सुकृतशाली सजनों की इष्ट वस्तु स्वयं ही फलित हो जाती है।॥ ४३॥
तमेनं विधुमालोक्य स उत्तस्थौ समुद्रवत् । सुदर्शनपिताऽप्यत्राऽऽतिथ्यसत्कारतत्परः
॥४४॥ समुद्रदत्त सेठ को इस प्रकार सहसा आया हुआ देखकर सुदर्शन का पिता वृषभदास सेठ भी चन्द्रमा को देखकर समुद्र के समान अति हर्षित हो अतिथि सत्कार करने के लिए तत्परता के साथ उठ खड़ा हुआ ॥४४॥
क्षेमप्रश्नानन्तरं ब्रूहि कार्यमित्यादिष्टः प्रोक्तवान् सागरार्यः । श्रीमत्पुत्रायास्मदनोद्भवा स्यानोचेद्धानिः सा पुनीताम्बुजास्या ॥४५॥
परस्पर कुशल-क्षेम पूछने के अनन्तर वृषभदास सेठ बोले - कहिये, अकस्मात कैसे आपका शुभागमन हुआ है, क्या सेवा योग्य कार्य है? इस प्रकार पूछने पर सागरदत्त सेठ बोले - मैं आपके श्रीमान सुदर्शन कुमार के लिए अपनी पुण्यगात्री कमल-वदना मनोरमा कुमारी को देना चाहता हूँ। यदि कोई हानि न हो, तो मेरी प्रार्थना स्वीकार की जाय ॥४५॥
भूमण्डलोन्नतगुणादिव सानुरागा-द्रशैव निर्मलरसोल्लसितप्रयागा । याऽगाजनिं जगति भो जडराशिजेन-तस्याः प्रयोग इह यः खलु बालकेन ॥६॥ भूयात्कस्य न मोदायेति वदन् श्रेष्टि सत्तमः । वृषभोपपदो दासो जिनपादसरोजयोः ॥४७॥
सागरदत्त सेठ के उक्त वचनों को सुनकर श्रीजिनराज के चरम कमलों का दास श्रेष्ठिवर्य वृषभदास हर्षित होता हुआ बोला - भूमण्डल पर उन्नत मस्तक वाले हिमालय के समान उत्तम गुणवान्, परम अनुरागी श्रीमान् से उत्पन्न हुई, निर्मल जल से उल्लसित होकर बहने वाली प्रयाग में उत्तम जनों से पूजनीय ऐसी गंगा के समान रसमयी और उत्कृष्ट कुलवाले लोगों द्वारा प्रार्थनीय आपकी सुपुत्री यदि खारे जलवाले लवण समुद्र के समान मुझ जड़ बुद्धि वाले पुरुष के बालक के साथ संयोग को प्राप्त होती है, तो उनका यह सम्बन्ध पृथ्वी पर किसके प्रमोद के लिए न होगा ॥४६-४७॥
ततोऽनवद्ये समये तयोरभूत्करग्रहोदारमहोत्सवश्च भूः । अपूर्वमानन्दमगान्मनोरमा-सुदर्शनाख्यानकयोरपश्रमात् ॥४८॥
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