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________________ 55 --------------- अथसागरदत्तसंज्ञिनः वणिगीशस्य सुतामताङ्गिनः । समुदीक्ष्य मुदीरितोऽन्यदा . धृत आसीत्तदपाङ्ग सम्पदा ॥३४॥ उसी नगर में सागरदत्त नाम का एक और भी वैश्यपति (सेठ) रहता था। उसके एक अति सुन्दर मनोरमा लड़की थी। किसी समय जिन-मन्दिर में पूजन करता हुआ वह सुदर्शन उसे देखकर उसके कटाक्षविक्षेपरुप सम्पदा से उस पर मोहित हो गया ॥३४॥ रतिराहित्यमद्यासीत् कामरूपे सुदर्शने ततो मनोरमाऽप्यासील्लतेव तरुणोज्झिता ॥३५॥ इधर तो साक्षात् कामदेव के रूप को धारण करने वाला सुदर्शन रति (काम की स्त्री) के अभाव से विकलता का अनुभव करने लगा और उधर मनोरमा भी वृक्ष के आश्रय से रहित लता के समान विकलता का अनुभव करने लगी। __ भावार्थ - एक दूसरे को देखने से दोनों ही परस्पर में मोहित होकर व्याकुलता को प्राप्त हुए ॥३५॥ कुतः कारणतो जाता भवतामुन्मनस्कता । वयस्यैरिति पृष्टोऽपि समाह स महामनाः ॥३६॥ किस कारण से आज आपके उदासीनता (अनमनापन) है, इस प्रकार मित्रों के द्वारा पूछे जाने पर उस महामना सुदर्शन ने उत्तर दिया ॥३६॥ यदद्य वाऽऽलापि जिनार्चनायामपूर्वरुपेण मयेत्यपायात् । मनोऽरमायाति ममाकुलत्वं तदेव गत्वा सुहदाश्रयत्वम् ॥३७॥ आज जिन-पूजन के समय मैंने अपूर्व रुप से (अधिक उच्च स्वर से) गाया, उसकी थकान से मेरा मन कुछ आकुलता का अनुभव कर रहा है, और कोई बात नहीं है, ऐसा है मित्रो, तुम लोग समझो। इस श्लोक-पठित 'वाऽऽलापि' (बालाऽपि) और 'अपूर्वरुपेण' इस पद के प्रयोग-द्वारा यह अर्थ भी व्यक्त कर दिया कि पूजन करते समय जिस सुन्दर बाला को देखा है, उसके अपूर्व रुप से मेरा मन आकुलता का अनुभव कर रहा है ॥३७॥ अहो किलाश्लेषि मनोरमायां त्वयाऽनुरूपेण मनो रमायाम् । जहासि मत्तोऽपि न किन्नु मायां चिदेति मेऽत्यर्थमकिन्नु मायाम् ॥३८॥ तमन्यचेतस्क मवेत्य तस्य संकल्पतोऽनन्यमना वयस्यः । समाह सद्यः कपिलक्षणेन समाह सद्यः कपिलः क्षणेन ॥३९॥ (युग्मम्) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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