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________________ - - _... 53 -- ___“आगामी काल में मुनिपना स्वीकार करने पर मुझे इसी पर सोना पड़ेगा" मानों यही सूचित करते हुए वह बालक जब अपनी बाल हठ से भूतल पर लोट-पोट होता था, तब वह अपने शरीर के सौरभ से धूलि को सुरभित कर पृथ्वी के गन्धवतीत्व गुण को स्पष्ट कर दिखलाता था ॥२५॥ भावार्थ - वैशेषिक मतवालों ने पृथ्वी को गन्धवती कहा है, अर्थात् वे गन्ध को पृथ्वी का विशेष या खास गुण मानते हैं। कवि ने उसे ध्यान में रखकर यह उत्प्रेक्षा की है। साथ ही भूतल पर लोटने की क्रीड़ा से उनके भविष्य काल में मुनि बनने की भी सूचना दी है। द्रुतमाप्य रुदन्नथाम्बया पय आरात्स्तनयोस्तु पायितः । शनकैः समितोऽपि तन्द्रितां स्म न शेते पुनरेष शायितः ॥२६॥ खेलते-खेलते वह बालक जब रोने लगता,तो माता भूखा समझ कर उसे शीघ्र स्तनों से लगाकर दूध पिलाने लगती। दूध पीते-पीते जब वह अर्धनिद्रित सा हो जाता, तो माता धीरे से उसे पालने में सुलाने के लिए ज्यों ही उद्यत होती, त्यों ही वह फिर जाग जाता और सुलाने पर भी नहीं सोता था ॥२६॥ समवर्धत वर्धयन्नयं सितपक्षोचितचन्द्रवत्स्वयम् । निजबन्धुजनस्य सम्मदाम्बुनिधिं स्वप्रतिपत्तितस्तदा ॥२७॥ इस प्रकार अपनी सुन्दर चेष्टाओं के द्वारा अपने बन्धुजनों के आनन्द रूप समुद्र को बढ़ाता हुआ यह बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भांति स्वयं भी दिन पर दिन बढ़ने लगा ॥२७॥ विनताङ्ग जवर्धमानता वदनेऽमुष्य सुधानिधानता । समभून्न कुतोऽपि वेदना भुवि बालग्रह भोगिभिर्मनाक् ॥२८॥ भूतलवी अन्य साधारण बालक जैसे बालपने में होने वाले नाना प्रकार के रोगरूप सॉं से पीडित रहते हैं, उस प्रकार से इस बालक के शरीर में किसी भी प्रकार की जरा-सी भी वेदना नहीं हुई। प्रत्युत विनता के पुत्र वैनतेय (गरुड़) के समान रोगरूप सॉं से वह सर्वथा सुरक्षित रहा, क्योंकि उसके मुख में अमृत रहता हैं। इस प्रकार वह बालक सर्वथा नीरोग शरीर, एवं सदा विकसित मुख रहते हुए बढ़ रहा था ॥२८॥ सुमवत्समतीत्य बालतां प्रभवन् प्रेमपरायणः सताम् ।। सुगुरोरुपकण्ठमाप्तवानपि कौमाल्यगुणं गतः स वा ॥२९॥ जैसे सुमन (पुष्प) लता का त्याग कर और सूत में पिरोया जाकर माला के रुप में श्रेष्ठ गुरुजनों के गले को प्राप्त हो सज्जनों का प्यारा होता है, उसी प्रकार वह सुन्दर मनवाला बालक सुदर्शन भी बालभाव का त्याग कर और गुणों से संयुक्त कुमार पने को प्राप्त होकर किसी सुयोग्य गुरु के सानिध्य को प्राप्त कर सजनों का प्रेम-पात्र हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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