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रत्नत्रयाराधनकारिणा
वा प्रस्पष्ट मुक्तोचितवृत्तभावा । समर्पिताऽधारि महाशयाभ्यां गुणावलीत्थं सहसाशयाभ्याम् ॥३०॥ जिस प्रकार इस व्यवहारी लोक में खनिज ( हीरा पन्ना आदिक) जलज (सीप मोती) और प्राणिज (गजमुक्ता) ये तीन प्रकार के रत्न प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार से आध्यात्मिक लोक में प्रसिद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप तीन महां रत्नों के धारण करने वाले श्री मुनिराज के द्वारा समर्पण की हुई, स्पष्ट रुप से मुक्ताफल के समान वृत्त भाव ( गोलाकारिता और छन्दरुपता) को धारण करने वाली, आर्शीवादरूप गुणमयी माला को वक्ष्यमाण प्रकार से विनम्र प्रार्थना करते हुए उस दम्पती ने बड़े आदर के साथ स्वीकार किया ||३०|
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भवाँस्तरं स्तारयितुं प्रवृत्तः भव्यवजं भव्यतमैकवृत्तः ।
समो भवाब्धौ परमार्थनावाऽस्त्यस्माकमस्मात्पर मार्थनावा ॥३१॥ सेठ-सेठानी ने कहा स्वामिन् आपका व्यवहार अति उत्तम है, आप भव्यजनों को परमार्थ रुप नाव के द्वारा संसार समुद्र से पार उतारने में प्रवृत्त हैं और स्वयं पार उतर रहे | प्रशंसक और निन्दक में समान हैं। अतएव हमारी भी एक प्रार्थना है ॥३१॥
स्वाकूतसङ्के तपरिस्पृशापि द्दशा कृशाङ्गचा दुरितैकशापी । सम्प्रेरितः श्रीमुनिराजपाद - सरोजयोः सावसरं जगाद ॥३२॥
अपने अभिप्राय को प्रकट करने वाले संकेत की दृष्टि से उस कृशाङ्गी सेठानी के द्वारा प्रेरित और पाप से भयभीत ऋषभदास सेठ ने अवसर पाकर श्री मुनिराज के चरण-कमलों में इस प्रकार निवेदन किया ||३२||
सुमानसस्याथ विशांवरस्य मुद्रा विभिन्नाऽस्य सरोरुहस्य । मुनीश भानोर भवत्समीपे लोकान्तरायाततमः प्रतीपे ॥३३॥
लोगों के अन्तरङ्ग में विद्यमान अन्धकार के नाश करने वाले मुनिराज रूप सूर्य के समीप मानसरोवर के समान विशाल और प्रसन्न चित्तवाले वैश्यवर सेठ का मुखरुप कमल विकसित हो गया ॥३३॥ जैसे सूर्य का सामीप्य पाकर कमल खिल जाता है, वैसे ही मुनिराज का सामीप्य पाकर सेठ का मुख कमल खिल उठा, अर्थात् वह अपने हृदय की बात को कहने लगा ।
भावार्थ
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निशीक्षमाणा भगवंस्त्वदीय- पादाम्बुजालेः सहचारिणीयम् । मेरुं सुरद्रु जलधिं विमानं निर्धूमवह्निं च न तद्विदा नः ॥३४॥ हे भगवन् आपके चरण कमलों में भ्रमर के समान रूचि रखने वाले मुझ दास की इस सहधर्मिणी
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