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________________ 38 -------- अतिथियों का आदर-सत्कार में तत्पर रहती थी। और वह सेठानी अलङ्कार परिपूर्ण उत्तम कविता के समान प्रसिद्ध थी। जैसे उत्तम कविता उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलङ्कारों से परिपूर्ण होती है, वैसे ही यह सेठानी भी गले, कान, हाथ आदि में नाना प्रकार के आभूषणों को धारण करती थी ॥६॥ पवित्ररुपामृतपूर्णकुल्या वाहां सदा हारिमृणालतुल्याम्। शेवालवच्छ लक्ष्णक चोपचार श्रीमन्मुखाम्भोजवती बभार ॥७॥ यह सेठानी पवित्र सौन्दर्य रुप अमृत से भरी हुई नदी-सी प्रतीत होती थी। उसके शरीर की भुजा तो कमल-नाल के समान लम्बी और सुकोमल थी, शिर के केश शेवाल (काई) के समान चिकने और कोमल थे और उन केशों के समीप उसका मुख खिले हुए कमल सी शोभा को धारण करता था ॥७॥ दीर्घोऽहिनीलः किल केशपाशः दशोः श्रुतिप्रान्तगतो विलासः। यस्या मुखे कौसुमसंविकास-संकाश आसीदपि मन्दहासः ॥८॥ उस सेठानी का केशपाश काले सांप केसमान लम्बा और काला था। उसके नेत्र कानों के समीप तक विस्तृत थे और उसके मुख पर विकसित सुमनों के समान सदा मन्द हास्य बना रहता था ॥८॥ मालेव या शीलसुगन्धयुक्ता शालेव सम्यक् सुकृतस्य सूक्ता। श्रीश्रेष्ठिनो मानसराजहं सीव शुद्धभावा खलु वाचि वंशी ॥९॥ वह सेठानी माला के समान शीलरुप सुगन्धि से युक्त थी, शाला के समान उत्तम सुकृत (पुण्य) की भाण्डार थी। श्री वृषभदास सेठ के मानस रूप मानसरोवर में निवास करने वाली राजहंसी के समान शुद्ध भावों की धारक थी और वंशी के समान मधुर भाषिणी थी ॥९॥ कुशेशयाभ्यस्तशया शयाना या नाम पात्री सुकृतोदयानाम् । स्वप्नावली पुंप्रवरप्रसूत्व-प्रासादसोपानततिं मृदुत्वक् ॥१०॥ अनल्पतूलोदिततल्पतीरे क्षीरोदपूरोदरचुम्बिचीरे। लक्ष्मीरिवासौ तु निशावसाने ददर्श हर्षप्रतिपद्विधाने ॥११॥ कमल से भी अतिकोमल हस्तवाली और अपूर्व भाग्योदय की पात्री उस सेठानी ने एक दिन क्षीर सागर के समान स्वच्छ श्वेत चादर से आच्छादित एवं रूईदार कोमल गद्दा से संयुक्त शय्या पर लक्ष्मी के समान सोते हुए रात्रि के अवसान-काल में श्रेष्ठ पुरुष की उत्पत्ति की सूचक, पुण्य प्रासाद पर चढ़ने के लिए सोपान-परम्परा के समान, हर्ष को बढ़ाने वाली प्रतिपदा तिथि का अनुकरण करती हुई स्वप्नावली को देखा ॥१०-११॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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