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________________ अथ द्वितीयः सर्गः अथोत्तमो वैश्यकुलावतंसः सदेक संसत्सरसीसुहं सः। तस्मिन्निवासी समभून्मुदा स श्रीश्रेष्ठिवर्यो वृषभस्य दासः ॥१॥ उसी समय उस चम्पापुर में वैश्यकुल का आभूषण, सज्जनों की सभा रुप सरोवरी का अद्वितीय हंस और सदा प्रसन्न रहने वाला श्रेष्ठिवर्य श्रीवृषभदास नाम का एक सेठ रहता था ॥१॥ द्विजिह्व तातीतगुणोऽप्यहीनः किलानकोऽप्येष पुनः प्रवीणः। विचारवानप्यविरुद्धवृत्तिर्मदोज्झितो दानमयप्रवृत्ति ॥२॥ वह सेठ द्विजिह्वतातीत गुणवाला हो करके भी अहीन था।. अर्थात् दो जिह्वावाले सॉं का स्वामी शेषनाग अपरिमित गुण का धारक होकर के भी अन्त में अहीन ही है, सर्प ही है। परन्तु यह सेठ द्विजिह्वन्ता अर्थात् चुगलखोरी के दुर्गुण से रहित एवं उत्तम सद्-गुणों का धारक होने से अहीन अर्थात् हीनता से रहित था, उत्तम था । वह सेठ आनक होते हुए भी अति प्रवीण था। अर्थात् आनक नाम नगाड़े का है, जो नगाड़ा हो, वह उत्तम वीणा कैसे हो सकता है ? इस विरोध का परिहार यह है कि वह सेठ आनक अर्थात् पापों से रहित था और अति चतुर था। तथा वह विचारवान् होते हुए भी अविरुद्ध वृत्ति था। 'वि' नाम पक्षी का है, जो पक्षियों के प्रचार से युक्त हो, वह पक्षियों से रहित आजीविका वाला कैसे हो सकता है। इस विरोध का परिहार यह है कि वह सेठ अति विचारशील था और जाति-कुल से अविरुद्ध न्याययुक्त आजीविका करने वाला था। वह सेठ मदोज्झित होकर के भी दानमय प्रवृत्तिवाला था। जो हाथी मद से रहित होता है, वह दान अर्थात् मद की वर्षा नहीं कर सकता। मद-युक्त गज के ही गण्डस्थलों से मद झरता है, मद-हीन गजों से नहीं। पर यह सेठ सर्व प्रकार के मदों से रहित हो करके भी निरन्तर दान देने की प्रवृत्तिवाला था ॥२॥ बभौ समुद्रोऽप्यजडाशयश्च दोषातिगः किन्तु कलाधरश्च । द्दशो न वेषम्यमगात्कुतोऽपि स पाशुपत्यं महदाश्रितोऽपि ॥३॥ वह सेठ समुद्र हो करके भी अजलाशय था. जो समुद्र हो और जल का भरा न हो, यह विरोध है । इसका परिहार यह है कि वह समुद्र अर्थात् स्वर्णादिक की मुद्राओं (सिक्कों) से संयुक्त होते हुए भी जडाशय (मूर्ख) नहीं था, प्रत्युत अत्यन्त बुद्धिमान् था। वह दोषातिग होते हुए भी कलाधर था । कलाधर नाम चन्द्रमा का है, वह दोषा अर्थात् रात्रि का अतिक्रमण नहीं कर सकता, अर्थात् उसे रात्रि में उदित होना ही पड़ता है। पर यह सेठ सर्व प्रकार के दोषों से रहित हो करके भी कलाधर था, Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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