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________________ 20 --- -- ---- (११) इसी नवें सर्ग के ६३ वें श्लोक में सचित्त त्याग प्रतिमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि संयमी पुरुष पत्र और फल जाति की किसी भी अनग्निपक्क वनस्पति को नहीं खाता है। यहां पर ग्रन्थकार ने अनग्निपक' पद देकर उन लोगों की ओर एक गहरा संकेत किया है- जो कि मूल वृक्ष से पृथक हुए पत्र, पुष्प, फल आदि को सचित्त नहीं मानते हैं। यह ठीक है कि तोड़े गये पत्र फलादिक में मूल वृक्ष जाति का जीव नहीं रहता, पर बीज आदि के रूप में सप्रतिष्ठित होने के कारण वह सचित ही बना रहता है। गन्ना को उसके मूल भाग से काट लेने पर भी उसके पर्व (पोर की गांठ, अनन्त निगोद के आश्रित हैं।) फिर उसे कैसे अचित माना जा सकता है। गन्ने का यंत्र-पीलित रस ही अचित्त होता है और तभी वह सचित्त त्यागी को ग्राह्य है। अमरुद आदि फलों के भीतर रहने वाले बीज भी सप्रतिष्ठित हैं, अतः वृक्ष से अलग किया हुआ अमरुद भी सचित्त ही है। यही बात शेष पत्र-पुष्प और फलादिक के विषय में जानना चाहिए। (१२) इसी नवें सर्ग के श्लोक ६५ में सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा का वर्णन करते हुए ग्रन्थकार ने 'समस्तमप्युज्झतु सम्व्यवायं' वाक्य के द्वारा स्त्री मात्र का ही त्याग नहीं कराया है, प्रत्युत अनंग क्रीड़ा, हस्तमैथुन, आदि सभी प्रकार के अनैतिक मैथुन सेवन को भी सर्वथा त्याज्य प्रतिपादन किया है। साधारण बारह व्रतों के पालन करने वाले के लिए अनंगक्रीड़ा आदि अतीचार हैं, पर प्रतिमाधारी के लिए तो वह अनाचार ही हैं। (१३) इसी सर्ग के ७०-७१ वें श्लोक में धर्म रुप वृक्ष का बहुत सुन्दर रुपक बतलाया गया है, जिसका आनन्द पाठक उसे पढ़ने पर ही ले सकेंगे। सुदर्शनोदय पर प्रभाव प्रस्तुत सुदर्शनोदय के कथानक पर जहां अपने पूर्ववर्ती कथा ग्रन्थों का प्रभाव द्दष्टिगोचर होता है, वहां धार्मिक प्रकरणों पर सागरधर्मामृत और क्षत्रचूड़ामणि का प्रभाव परिलक्षित होता है। यथा 'मां हिंस्यात्सर्वभूतानीत्याएं धर्म प्रमाणयन्। सागसोऽप्यङ्गिनो रक्षेच्छक्त्या किन्नुनिरागसः।। (सुदर्श. सर्ग ४, श्लो. ४१) न हिंस्यात्सर्वभूतानीत्याएं धर्म प्रमाणयन्। सागसोऽपि सदा रक्षेच्छक्क्या किनु निरागसः।। (सागार. अ. २, श्लो. ८१) पत्रशांक च वर्षासु नऽऽहर्तव्यं दयावता ॥ (सुदर्श. स. ९, श्लो. ५६) वर्षास्वदलितं चात्र पत्रशाकं च नाहरेत्॥ (सागारधर्मा. अ. ५ श्लो. १८) 96 9 8888888888888888885608850888 82695 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002749
Book TitleSudarshanodaya Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri, Hiralal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size10 MB
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