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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 83 जिनवाणी शरीर को हटाकर आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर केन्द्रित करता है। जिससे उसके कलुष दूर हो जाते हैं एवं रागद्वेष के दुर्भाव मिट जाते हैं। उसकी शत्रु व मित्र के प्रति समदृष्टि हो जाती है। उसे शत्रु के प्रति न तो क्रोध आता है और न ही मित्र प्रति अनुराग । वह विषमभाव को छोड़कर समभाव को धारण कर लेता है । परिणामस्वरूप उसका जीवन अन्तर्द्वन्द्व से मुक्त होकर सुख, शांति एवं समभाव की लहरों में संप्रवाहित होने लगता है अर्थात् उसकी आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में रमण करने लगती है । यही सामायिक का सार है। आवश्यक नियुक्ति में कहा गया है सावज्जजोग-विरओ, तिगुत्तो छसु संजओ । उवउत्तो जयमाणो, आया सामाइयं होइ || जब साधक सावद्य योग से विरत होता है, मन, वचन एवं काय की गुप्ति से युक्त होता है, छह काय के जीवों के प्रति संयत होता है, स्व-स्वरूप में उपयुक्त होता है अर्थात् यतना में विचरण करता है, तब वह स्वयं आत्मा ही सामायिक है। उत्तराध्ययन सूत्र के २९वें अध्ययन में गौतम स्वामी प्रभु महावीर से पृच्छा करते हैं सामाइएणं भंते! जीवे किं जणयइ ? सामाइएणं सावज्जजोगवरिइ जणयइ ।। भगवन्! सामायिक करने से इस आत्मा को क्या लाभ होता है? सामायिक करने से सावद्य योग अर्थात् पापकर्म से निवृत्ति होती है । इस प्रकार सामायिक साधना सर्वसावद्य योग की विरति का प्रतिपादक होने से 'सामायिक आवश्यक' को 'सावद्य योग विरति' कहा गया है। २. उत्कीर्तन- उपकारी पुरुषों के गुणों की स्तुति करना, उनके गुणों का कीर्तन करना । सावद्ययोग से निवृत्ति के पश्चात् राग-द्वेष रहित महान् आत्माओं का गुणानुवाद आवश्यक है। त्याग - वैराग्य के महान् आदर्श पुरुष तीर्थंकर भगवान् वीतराग देव ही होते हैं। ऐसे परमोपकारी चौबीस तीर्थंकरों के गुणों की स्तुति करना, उनके गुणों का संकीर्तन करना ही उत्कीर्तन / चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक है। तीर्थंकर की स्तुति - स्तवन करने का अर्थ है- उच्च नियमों, सद्गुणों एवं उच्च आदर्शों का स्मरण इस प्रकार चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक में चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन - गुणानुवाद किए जाने से वह उत्कीर्तन रूप है। यह आवश्यक गुणों के प्रति अनुराग के लिए आलम्बन स्वरूप है। ३. गुणवत्प्रतिपत्ति- सावद्ययोग विरति की साधना में तत्पर गुणवान् अर्थात् मूल एवं उत्तरगुणों के धारक संयमी निर्ग्रन्थ की प्रतिपत्ति- आदर सम्मान करना । करना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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