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________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| || जिनवाणी ३. ५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रतों में लगने वाले अतिचारों का प्रतिक्रमण व्रती श्रावकों के लिए है। सामान्यतया यह भ्रामक धारणा बनी हुई है कि प्रतिक्रमण अतीत काल में लगे हुए दोषों की परिशुद्धि के लिए है। पर आचार्य भद्रबाहु ने बताया कि प्रतिक्रमण केवल अतीतकाल में लगे दोषों की ही परिशुद्धि नहीं करता, अपितु वह वर्तमान और भविष्य के दोषों की भी शुद्धि करता है। अतीतकाल में लगे हुए दोषों की शुद्धि तो आलोचना प्रतिक्रमण में की जाती है, वर्तमान में भी साधक संवर साधना में लगे रहने से पापों से निवृत्त हो जाता है। साथ ही प्रतिक्रमण में साधक प्रत्याख्यान ग्रहण करता है, जिससे भावी दोषों से भी बच जाता है। अतः साधक के लिए प्रतिदिन उभयकाल का प्रतिक्रमण करना आत्मविशुद्धि की दृष्टि से परमावश्यक है। प्रतिक्रमण के भेद-प्रभेद (१) दो भेद- अनुयोगद्वार में आचरण की दृष्टि से प्रतिक्रमण के दो भेदों का उल्लेख है - १. द्रव्य प्रतिक्रमण २. भाव प्रतिक्रमण। द्रव्य प्रतिक्रमण उतना लाभकारी नहीं है जितना भाव प्रतिक्रमण है। पाठों का यंत्रवत् उच्चारण करना, उपयोगपूर्वक और चिन्तनपूर्वक न करना, कीर्ति आदि की कामना से करना, पुनः पुनः स्खलनाओं का पुनरावर्तन करते रहना द्रव्य-प्रतिक्रमण है। उपयोगशून्य होकर पापों की आलोचना करना, पापों के प्रति ग्लानि का अभाव होना केवल शारीरिक व्यापार है, जो विशेष लाभ का कारण नहीं है। क्योंकि वास्तविक दृष्टि से जैसी शुद्धि होनी चाहिए वह द्रव्य प्रतिक्रमण से नहीं हो पाती है। ___ इसके विपरीत एकांत कर्म-निर्जरा की भावना से संकल्पपूर्वक उपयोग एवं एकाग्रता के साथ किया जाने वाला प्रतिक्रमण भाव प्रतिक्रमण होता है, जो यथेष्ट साध्य की प्राप्ति में सहायक होता है। उपयोगपूर्वक, एकाग्रचित्त (मन), एकाग्र परिणाम से लोक-परलोक की वासना से रहित; कीर्ति, यश, सम्मान, कर्म-फल आदि की अभिलाषा से रहित तथा निश्चल शरीर से उभयकाल में आवश्यक पाठों का चिन्तन, उनके अर्थो का मनन तथा पूर्वकृत दोषों और आत्म-अवगुणों का अवलोकन करते हुए आलोचना द्वारा शुद्धीकरण की क्रिया भाव-प्रतिक्रमण है। भाव प्रतिक्रमण में साधक के अंतर्मन में पापों के प्रति तीव्र ग्लानि होती है। वह त्रिकरण, त्रियोग से मिथ्यात्व आदि दुर्भावों में गमन करने का त्यागी होता है। (२) पाँच भेद- प्रतिक्रमण के मूलतः ५ भेद बताये गये हैं- १. मिथ्यात्व २. अव्रत ३. प्रमाद ४. कषाय और ५. अशुभ योग। यद्यपि साधक स्वयं ही साधना का दायित्व पूर्ण जागरूकता और निष्ठा के साथ निर्वहन करता हुआ चलता है तथापि उससे प्रमाद, कषायादि नियमों का अतिक्रमण संभव है, क्योंकि वह अपूर्ण है। अतः भूल हो जाना स्वाभाविक है। किन्तु उस भूल का स्वीकरण और परिहार भी आवश्यक है। यदि ऐसा नहीं होगा तो दोषों का निष्क्रमण नहीं होगा और वे वृद्धिंगत होते रहेंगे। इसलिए प्रातःकाल और सायंकाल गृहीत नियमों (व्रतों) तथा आत्म-प्रवृत्ति में लगे दोषों का चिन्तन, आलोचन तथा निंदा करके उन्हें दूर करते . . हुए शुद्धीकरण करना साधक का कर्तव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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