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________________ जिनवाणी |15,17 नवम्बर 2006 मि दुक्कडं' देते रहें। इस प्रकार का यह 'मिच्छा मि दुक्कडं' आत्मा का शुद्ध नहीं अधिक अशुद्ध बना देता है। इस संबंध में स्पष्ट उल्लेख है कि पापकर्म करने के बाद जब प्रतिक्रमण अवश्य करणीय है, तब सरल मार्ग तो यह है कि पाप कर्म किया ही न जाय। आध्यात्मिक दृष्टि से वस्तुतः यही सच्चा प्रतिक्रमण है। जो साधक त्रिविध योग से प्रतिक्रमण करता है, जिस पाप के लिये 'मिच्छामि दुक्कडं' देता है। फिर भविष्य में उस पाप को नहीं करता है, वस्तुतः उसी का दुष्कृत्य निष्फल होता है। साधक एक बार मिच्छामि दुक्कडं देकर भी यदि फिर उस पापाचरण का सेवन करता है तो वह प्रत्यक्षतः झूठ बोलता है। दम्भ का जाल बुनता है। इस प्रकार के साधक के लिये बड़ी कठोर भाषा में भर्त्सना की गई है। जो व्यक्ति जैसा बोलता है, यदि भविष्य में वैसा नहीं करता है, तो उससे बढ़कर मिथ्यादृष्टि और कौन होगा? वह दूसरे भद्र-व्यक्तियों के मन में शंका पैदा करता है और इस रूप में मिथ्यात्व की वृद्धि करता है। उक्त कथन वास्तव में सर्वथारूपेण यथार्थ है। इसी विवेचना के परिपार्श्व में यह ज्ञातव्य तथ्य है कि 'मिच्छा मि दुक्कड़' के एक-एक अक्षर पर कितना भावपूर्ण वर्णन है। यदि साधक मिच्छा मि दुक्कडं कहता हुआ उस पर गहराई से विचार कर ले तो फिर पापाचरण करने के लिये तत्पर न होगा। 'मिच्छा मि दुक्कडं' में 'मि' का अर्थ है- मृदुता या मार्दव। काय-नम्रता को मृदुता कहते हैं और भाव-नम्रता को मार्दव कहा जाता है। ‘छ' का अर्थ असंयम योग रूप दोषों का छादन करना है, उन्हें रोक देना है। 'मि' का अर्थ मर्यादा भी है, अर्थात् मैं चारित्र रूप मर्यादा में अवस्थित हूँ। 'दु' का आशय है 'निन्दा'। मैं दुष्कृत करने वाले भूतपूर्व आत्म पर्याय की निन्दा करता हूँ। 'क' का भाव पापकर्म की स्वीकृति है। अर्थात् मैंने पाप किया है। पाप अशुभ कर्म है। 'ड' का अर्थ उपशम भाव है। आत्म में कारणवश कर्म की शक्ति का अनुभूत होना, सत्ता में रहते हुए भी उदय प्राप्त न होना इसका नाम 'उपशमभाव' है।" उपशम भाव के द्वारा पापकर्म का प्रतिक्रमण करना है, पाप-क्षेत्र को लांघ जाना है। यह अतीव संक्षेप में 'मिच्छा मि दुक्कड़' का स्पष्ट रूपेण अक्षरार्थ है। .. वास्तविकता यह है कि प्रतिक्रमण एक अन्तर्मुखी साधना है। यदि प्रमाद की स्थितिवश हमारी आत्मा संयम-क्षेत्र से असंयम क्षेत्र में चली गयी हो, तो उसे पुनः संयम क्षेत्र में लौटा लाना, यही प्रतिक्रमण है। ___प्रतिक्रमण की साधना प्रमाद भाव को दूर करने के लिये है। साधक के जीवन में प्रमाद ही वह विष है, जो अन्दर ही अन्दर साधना को विनष्ट कर डालता है। अतएव श्रमण और श्रावक इन दोनों का परम कर्तव्य है कि प्रमाद से बचें और प्रतिक्रमण के द्वारा अपनी साधना को अप्रमत्त स्थिति प्रदान करें। सारपूर्ण भाषा में यही कहा सकता है कि प्रतिक्रमण एक प्रकार का प्रायश्चित्त है। संयम-जीवन को विशेष रूपेण परिष्कृत करने के लिये, शुद्धतम करने के लिये, आत्मा को राग-द्वेष से रहित करने के लिये, पापकर्मो के निर्घात के लिये 'प्रतिक्रमण' किया जाता है और इस अध्यात्म-प्रधान साधना में निरत साधक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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