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________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी अश्रद्धा उत्पन्न हुई हो तो उसकी शुद्धि के लिये साधक को प्रतिक्रमण करना चाहिये । ४. हिंसा, असत्य आदि दुष्कृत्य जिनका निषेध किया गया है, साधकों को उनका प्रतिपादन कदापि नहीं करना चाहिये । कभी असावधानी से यदि निरूपण किया हो तो उसका प्रतिक्रमण करना चाहिये । 1 यह स्पष्ट है कि उक्त चार भेद अपेक्षा दृष्टि से प्रतिपादित हुए हैं। उन सभी का अभिप्राय यही है कि जो भी पापपूर्ण प्रवृत्तियाँ हुई हैं, उनका शुद्ध हृदय से प्रायश्चित्त करना चाहिये । प्रतिक्रमण एक ऐसी अध्यात्म प्रधान साधना है। जिसके द्वारा साधक कृत पापों का प्रक्षालन करता है । प्रतिक्रमण केवल अतीत काल में लगे दोषों की शुद्धि ही नहीं करता है, अपितु वह वर्तमान और भविष्यकाल के दोषों की भी शुद्धि करता है। अतीत काल में लगे हुए दोषों की आलोचना तो प्रतिक्रमण में ही की जाती है। वर्तमान-काल में साधक संवर-साधना में लगे रहने से पाप कर्मो से निवृत्त रहता है। साथ ही प्रतिक्रमण में वह प्रत्याख्यान ग्रहण करता है, जिससे भावी दोषों से बच जाता है। निष्कर्ष यह है कि भूतकाल के अशुभयोग से निवृत्ति, वर्तमानकाल में अशुभयोग से निवृत्त होकर शुभ योग में प्रवृत्ति और भविष्यकालीन अशुभयोग से हटकर शुभयोग में प्रवृत्ति करूँगा- यह संकल्प होता है । इस तरह वास्तव में प्रतिक्रमण एक विशिष्ट साधना है। 'प्रतिक्रमण' साधना का महत्त्व अनेक दृष्टियों से रहा है। श्रमण के विविध कल्प हैं। कल्प का अर्थ है जो कार्य ज्ञान, शील, तप आदि का उपग्रह करता है और दोषों का निग्रह करता है वह निश्चय दृष्टि से कल्प है और शेष अकल्प है। " कल्प शब्द का अर्थ 'काल" भी हैं, किन्तु यहाँ पर इसका अर्थ 'मर्यादा' है, 'नीति' है और 'आचार' भी है। यह भी समझना होगा कि कल्प के संदर्भ में श्रमणों की 'समाचारी' भी विशेष रूप से प्रतिपादित है । 39 'कल्प' के संबंध में विविध दृष्टियों से विचारणा हुई है। इसके दश भेद भी प्रतिपादित हुए हैं। " उनके नाम ये हैं १. आचेलक्य ३. शय्यातर कृतिकर्म Jain Education International २. औद्देशिक ४. राजपिण्ड ५. ६. व्रत ७. ज्येष्ठ ८. प्रतिक्रमण १०. पर्युषणा कल्प ९. मासकल्प इन दशविध कल्पों में प्रतिक्रमण भी एक कल्प है और यह कल्प दोष परिहार का महत्त्वपूर्ण उपक्रम है। श्रमण अपने अपराध का निराकरण करने के लिये जो अनुष्ठान करता है, उसको 'प्रतिक्रमण' नाम का कल्प कहा गया है। साधक गुरुदेव की साक्षी से अपनी आत्मा की मलिनता को दूर करता है। अपनी भूलों को ध्यान में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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