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________________ 380 |15.17 नवम्बर 2006|| | जिनवाणी २२. जीवियासंसप्पओगे- प्रशंसा फैलने पर जीवित रहने की आकांक्षा करना। २३. मरणासंसप्पओगे- कष्ट होने पर शीघ्र मरने की इच्छा करना। २४. कामभोगासंसप्पओगे- काम-भोग की अभिलाषा करना। पाँच महाव्रतों की २५ भावनाएँ (इनका पालन न करने पर अतिचार लगता है) पहले महाव्रत की ५ भावना २५. ईर्या समिति २६. मनः समिति २७. भाषा समिति २८. एषणा समिति २९. आदान-भण्ड निक्षेपणा समिति दूसरे महाव्रत की ५ भावना ३०. बिना विचारे नहीं बोले ३१. क्रोधवश नहीं बोले ३२. लोभवश नहीं बोले ३३. भयवश नहीं बोले ३४. हास्यवश नहीं बोले तीसरे महाव्रत की ५ भावना ३५. अठारह प्रकार का निर्दोष स्थान स्वामी की आज्ञा लेकर भोगना ३६. तृण कंकरादि याचकर लेवे ३७. छः काया का आरम्भ करके स्थानक नहीं भोगवे ३८. पाँच प्रकार का अदत्त नहीं लेवे ३९. तपस्वी, ग्लान, रोगी, वृद्ध आदि की सेवा करे। चौथे महाव्रत की ५ भावना ४०. स्त्री, पशु, नपुंसक सहित स्थानक में नहीं ठहरे। ४१. स्त्रीकथा/पुरुषकथा नहीं करे। ४२. स्त्री/पुरुष के अंगोपांग रागदृष्टि से नहीं देखे। ४३. पहले के काम-भोग याद नहीं करे। ४४. सरस आहार प्रतिदिन नहीं करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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