SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 360 जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 आत्मनिंदा के भाव लाता है, सोचता है मेरे द्वारा पाप से पीछे नहीं हटने के कारण ही मैं संसार में कड़ा हुआ हूँ और आगे के लिए दोष सेवन नहीं करने का संकल्प करता हूँ, यह स्खलित निन्दना है। ५. जैसे शारीरिक स्तर पर कैंसर आदि की गाँठ से पीड़ित रोगी शल्य क्रिया के द्वारा अपने शरीरस्थ गाँठ को निकलवा कर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर लेता है अर्थात् अपने रोग का उपचार कर लेता है, वैसे ही महाव्रतों की आराधना करते हुए कभी दोष लग जाने पर प्रायश्चित्त रूप उपचार से अपने भाव व्रण की चिकित्सा कर लेता है । ६. जैसे शल्यक्रिया (ऑपरेशन) के बाद रोगी के शरीर में कमजोरी आ जाती है, तो वह पौष्टिक दवा (टॉनिक) आदि का सेवन करके शरीर को वापस पुष्ट, बलवान बनाता है, वैसे ही आत्मिक शल्यकर्ता छठे आवश्यक में अनेक प्रकार के व्रत - प्रत्याख्यान आदि अंगीकार करके अपने आत्मगुणों में अभिवृद्धि कर लेता है। ३. आवश्यक मनोवैज्ञानिक चिकित्सा है- १. जैसे मानसिक रूप से रोगी व्यक्ति अपने मानसिक रोग को उपशान्त करने का संकल्प करता है एवं सोचता है मैं अब रोगी नहीं रहूँगा, मानसिक स्वास्थ्य लाभ को प्राप्त करूँगा, वैसे ही कर्म रोग से पीड़ित व्यक्ति अपने आपको स्वस्थ बनाने का संकल्प करता है। कर्म रोग को बढ़ाने वाले सावद्य कार्यों से विरक्ति का संकल्प ग्रहण करता है । २. जैसे कोई व्यक्ति पहले मानसिक रोग से पीड़ित था और वह अब उपचारोपरान्त स्वस्थ है, उसे स्वस्थ देखकर यह खुश होता है, उसकी प्रशंसा करता है, वैसे ही कर्मयुक्त प्राणी, घातिक कर्म रहित अरिहन्त, अष्ट कर्म रहित सिद्ध भगवन्तों को देखकर, उनके प्रति अहोभाव लाता है, वैसा बनने का सुविचार करता है। उनके गुणों की स्तुति तथा उत्कीर्तन करता है । ३. कोई व्यक्ति पहले मानसिक रूप से पीड़ित था और आज मानसिक रोग का उपचार करता हुआ धीरे-धीरे मानसिक स्वस्थता को प्राप्त कर रहा है, ऐसे व्यक्ति को देखकर यह रोगी उस व्यक्ति के प्रति विनय, आदर, सम्मान का भाव लाता है, उससे प्रेरणा लेता है, सोचता है, मैं भी इसी तरह स्वास्थ्य लाभ की प्रक्रिया को अपनाऊँगा । इसी तरह आत्मिकरोग से ग्रस्त व्यक्ति, कर्म रोग को दूर करते हुए गुरु भगवन्तों को देखकर, उनके गुणों से प्रभावित होकर उनके गुणों का विनय अर्थात् गुणवत् प्रतिपत्ति करता है । ४. मानसिक रोगी सोचता है मैं पहले स्वस्थ था, मैंने ही नकारात्मक सोच ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, तनाव आदि से अपने आपको 'आधि' ग्रस्त बनाया है और अपने दोषों की निन्दना करके वह दोषों का प्रतिक्रमण करता है, वैसे ही मिथ्यात्व आदि आत्मिक रोगों से पीड़ित व्यक्ति सोचता है, मैंने मेरी गलती से ही दोष सेवन कर अपने को संसार में अटकाया है। ऐसा चिन्तन कर वह अपनी स्खलनाओं की निन्दा करता हुआ पापों से पीछे हट जाता है । ५. जैसे मानसिक रूप से पीड़ित व्यक्ति किसी मनोचिकित्सक के पास जाकर रोगोपचार कराता है और स्वस्थता ( मानसिक समाधि) को प्राप्त करता है, वैसे ही कर्मरोग से ग्रसित व्यक्ति प्रायश्चित्त करके अपने रोग का उपचार करता है। प्रायश्चित्त एक तरह का उपचार है जो भाव व्रण की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy