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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी 343 सती राजीमती ने भी ऐसे ही स्वाभिमान पूरित शब्दों से रथनेमि को चेताया था " अहं च भोगरायस्स... संजमं निहुओ चर ।। " ( दशवैकालिक २/८) जबकि साधक को संयमोपरान्त अपने कुल परिवार को याद नहीं करना चाहिए। यह 'आउरस्सणाणि' अनाचीर्ण है, फिर भी राजीमती की इस स्वाभिमान पूर्ण गंभीर वाणी को आगमकारों ने सुभाषित जाना और रथनेमि के साधक भाव जागृत हुए। यह तो वह आत्माभिमान है जो साधक को पापाचरण से बचाता है, यह तो वह आत्मसमुत्कीर्तन है जो साधक को धर्माचरण के लिए प्रखर स्फूर्ति, अचंचल ज्ञान - चेतना देता है तथा अन्तर्हृदय को वीररस से आप्लावित कर देता है। कीचड़ में फँसा हाथी कई रस्सियों से भी बाहर नहीं निकल पाता, पर युद्ध की भेरी, वीररस से परिपूर्ण स्वरों को सुन ऐसा आत्मसामर्थ्य जगाता है कि क्षण भर में दलसे बाहर निकल आता है। दल (६) प्रभो ! मैं तुम्हारा अतीतकाल हूँ, तुम मेरे भविष्यकाल हो, वर्तमान में मैं तुम्हारा अनुभव करूँ, यही भक्ति है। व्याख्या- • लोगस्स, उत्कीर्तन सूत्र - जैन दर्शन की यह विशेषता है कि इसमें भक्त और भगवान् का वर्ग अलग-अलग नहीं माना है। यहाँ तो फरमाया है कि हर साधक दोषों को देख उन्हें दूर करने का पुरुषार्थ करे तो सिद्ध हो सकता है। आत्मा, परमात्मा पद पा सकती है, दोषी, निर्दोष बन सकता है, इंसान ही ईश्वर बन सकता है। प्रथम आवश्यक में साधक निज दोषों को देखता है । कोई-कोई साधक अपने प्रति घृणा, हीनता की भावना से ग्रस्त हो जाते हैं । उस हीनता की ग्रंथि का नाश हो, इसलिए उत्कीर्तन करते हैं। उन महापुरुषों की स्तुति जो हम जैसे जीवन से ऊपर उठे, पूर्णता में पूर्ण लीन हो गये । आत्मविश्वास को जगा, लक्ष्य की सही पहचान करने के लिए, लक्ष्य को प्राप्त करने वाले साध्य को प्राप्त अरिहंतों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जाता है । विहूयरयमला- मेरे समान ही कर्मरज से आप्लावित जीव भी पुरुषार्थ कर कर्म-रज से दूर हो गये। जन्म-जरा-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो गये। अतः यह देख आत्मविश्वास जगता है, व्याकुलता बढ़ती है और भावना जगती है- सिद्धा सिद्धिं दिसंतु । अर्थात् मैं भी अव्याबाध सुख, अनन्त ज्ञान दर्शन से युक्त मोक्ष को प्राप्त करूँ । साधक तो जानता है कि सिद्धि स्वयं के पुरुषार्थ से मिलती है । परन्तु वह निज दोष अवलोकन कर निर्दोष बनना चाहता है। उस बीच किंचित् भी अहंकार न आ जाये, इसलिए दायक भाव उपचारित कर 'दिंतु' शब्द का प्रयोग किया गया है। साधक को अपने दोषों से व्याकुलता बढ़ती है, तब वह अदृश्य द्रष्टा का आभास पा, उपलब्ध आत्म-आनन्द की अनुभूति से विभोर हो उठता है- कित्तिय वंदिय महिया.... । "हे प्रभो ! मम विभो ! आप भी मेरे समान सांसारिक बंधनों से आबद्ध थे, अब विमुक्त बन गये, मैं भी शीघ्रातिशीघ्र आपके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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