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________________ |15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी क्षण स्व के दोषों की खोज की जाती है, वह क्षण निर्दोषता का होता है। जीव जाने हुए दोषों का दृढ़तापूर्वक सदैव के लिए त्याग कर दे तो वह सदैव के लिए निर्दोष बन जाता है। जानते हुए अपनी निर्दोषता को सुरक्षित रखना ही सही पुरुषार्थ है। (३) जो इन्द्रिय और मन के वश में नहीं होता है उसके ही भाव आवश्यक होता है। व्याख्या- 'ठाणेणं, मोणेणं, झाणेणं अप्पाणं वोसिशमि।' जैन दर्शन में प्रत्येक क्रिया को द्रव्य और भाव के भेद से देखा जाता है। भावहीन साधना अन्तर्जीवन में प्रकाश नहीं डाल सकती। अनुयोगद्वार सूत्र में भी द्रव्य व भाव का वर्णन किया गया है। भावशून्य आवश्यक करने वालों के लिए 'जस्स' शब्द का प्रयोग किया गया है अर्थात् जिस किसी का। श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी के तो अनुयोगद्वार सूत्र में भावावश्यक ही स्वीकार किया गया है। भावावश्यक का विश्लेषण करते हुए फरमाया है कि- "जं णं इमे समणो वा, समणी वा, सावओ वा, साविया वा तच्चित्ते, तम्मणे, तल्लेसे, तदज्झवसिए, तत्तिव्वज्झवसाणे, तदट्ठोवउत्ते, तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए अन्नत्थ कत्थई मणं अकरमाणे उभओ कालं आवस्सयं करेंति।'' जो ये शांत स्वभाव रखने वाले साधु-साध्वी, साधु के समीप जिनप्रणीत समाचारी को सुनने वाले श्रावक-श्राविका उसी आवश्यक में सामान्य प्रकार से उपयोग सहित चित्त को रखने वाले, उसी आवश्यक में विशेष प्रकार से उपयोग सहित चित्त को रखने वाले, उसी आवश्यक में शुभ परिणाम रूप लेश्या वाले, भावयुक्त उसी आवश्यक में विधिपूर्वक क्रिया करने के अध्यवसाय वाले, चढ़ते परिणाम वाले, उसी आवश्यक में सब इन्द्रियों को लगाने वाले, उसी आवश्यक में मन, वचन एवं काया को अर्पित करने वाले, उसी आवश्यक में भावना से भावित होने वाले, उसी आवश्यक के सिवाय अन्यत्र किसी स्थान पर मन न लगाते हुए चित्त की एकाग्रता रखने वाले दोनों समय उपयोग सहित आवश्यक करें। इन भावों के अभाव से किया गया आवश्यक साधना क्षेत्र में उपयोगी नहीं होता __ इन्द्रिय और मन आत्मा को बाहर की ओर ले जाते हैं और भीतर में जाने पर ही भाव आवश्यक होता है। जो साधक इन्द्रिय एवं मन के वश में नहीं, वह है अवशी और अवशी के द्वारा होने वाला आवश्यक भाव-आवश्यक है। (४) आत्मसाक्षी से धर्म होता है। आंतरिक इच्छा से वन्दना, प्रतिक्रमण आदि होते हैं। व्याख्या- जैन धर्म स्वतंत्रता या इच्छा प्रधान धर्म है। यहाँ किसी आतंक या दबाव से कोई काम करना और मन में स्वयं किसी प्रकार का उल्लास न रखना अभिमत अथवा अभिहित नहीं है। बिना प्रसन्न मनोभावना के की जाने वाली धर्मक्रिया, कितनी भी क्यों न महनीय हो, अन्ततः वह मृत है, निष्प्राण है। इस प्रकार भय के भार से लदी हुई मृत धर्मक्रियाएँ तो साधक के जीवन को कुचल देती हैं। विकासोन्मुख धर्म-साधना स्वतंत्र इच्छा चाहती है। मन की स्वयं कार्य के प्रति होने वाली अभिरुचि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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