________________
33
|15,17 नवम्बर 2006||
| जिनवाणी कहना। अनुयोगद्वार सूत्र के हार्द को समझकर भावपूर्वक दोष टटोलना, दोष निकालना है, मात्र विनम्र अनुरोध कर रहा हूँ। नाम को समाप्त कर निर्नाम बनना है ना?
भूख लगी निज नाम की, भूल नहीं है काम की। व्रण चिकित्सा चाम की, भावना बस राम की ।।
काय का उत्सर्ग है, श्रेष्ठ यह व्युत्सर्ग है... लक्ष्य को पहचान 'सव्वदुक्खविमोक्खणं' सर्व दुःखों से छुटकारा दिलाने वाला व्युत्सर्ग। पर पदार्थ के आकर्षण से लगे घावों को, जड़ द्वारा आत्मा पर किये व्रणों को भरने वाला। निज नाम की भूल से भयंकर स्खलना होती है। खंधक की खाल छिलने का कारण, काचरा छीलना नहीं, अहंकृति ही तो था। त्रिपृष्ठ वासुदेव द्वारा शय्यापालक के कानों में शीशा डलवाने का कारण भी अहंकार रहा।
असंख्यात काल- लगभग १ कोटाकोटि सागर में ४२००० वर्ष कम तक भगवान् महावीर के जीव को नीच गोत्र में जाने का कारण? आप परिचित हैं- बस इसी अहंकृति से छुटकारा करते हुए अब तो नाम ही नहीं काया की ममता के त्याग की बारी है। कायोत्सर्ग के रूप बदलते गए। आगम के पश्चात् श्वास का उल्लेख आया और फिर श्वास-गणनापूर्ति के लिये लोगस्स की संख्या का निर्धारण हुआ। उसी क्रम में अजमेर सम्मेलन में पूर्वाचार्यों ने एकरूपता का प्रयास किया। हम करें- पर उस समय काया की ममता को त्याग कर प्रभु में लवलीन हो जायें, आत्मभाव में लवलीन हो जायें, पुरानी भूल अपने आप छूट जायेगी और भविष्य की उज्ज्वलता के लिये
वीर का व्याख्यान है, करना आतम ध्यान है । सद्गुणों की खान है, पाप प्रत्याख्यान है।
प्रतिक्रमण (आवश्यक) शुद्ध करना है, मुदित मुक्ति वरना है...लक्ष्य को पहचान वर्तमान की सामायिक प्रथम आवश्यक हुआ, अतीत का प्रतिक्रमण चौथा आवश्यक हुआ, अब बारी आई भविष्य के प्रत्याख्यान की- गुणधारणा। पढ़ा मैंने “प्रायश्चित्त द्वारा चित्त की शुद्धि हो जाने पर व्रती का जीवन प्रारम्भ होता है।" हम देख लें- 'पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि' के पश्चात् ही महाव्रत आरोपण का पाठ बोला जाता है। दशवैकालिक का चौथा अध्याय कहता है- 'पढमे भंते! महव्वए उवट्ठिओमि.. । अर्थात् भूत के गर्हित जीवन से छुटकारे के पश्चात् ही इच्छित श्रेष्ठ जीवन में प्रवेश संभव है। प्रायः उत्तर गुण के रूप में प्रत्याख्यान धारण किये जाते हैं। आत्मोत्थान की प्रक्रिया का सूचक है प्रतिक्रमण।
गुरुकृपा से रात्रि में ही भजन बना और आज बैंगलोर का भंसाली परिवार गुरु भगवन्तों की सेवा में आगे प्रेरणा लेने के साथ बैंगलोर की विनति करने उपस्थित हुआ। अनेक साधक स्वाध्यायी हैं इस परिवार में- वे भी और शेष सब भी आत्म विकास करने वाली शुद्ध साधना में आगे बढ़ें, इसी भावना से कुछ चिन्तन करने का मौका मिला। आचार्य भगवन्त की कृपा से उनके सान्निध्य में आगे बढ़ें। इसी मंगल भावना के साथ....
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org