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________________ प्रश्न उत्तर प्रश्न उत्तर प्रश्न उत्तर प्रश्न उत्तर प्रतिक्रमण : निज स्वरूप में आना (चर्चा के आधार पर) 15, 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 320 प्रतिक्रमण का लाभ कब होता है? प्रतिक्रमण दो प्रकार के हैं- द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण । इनमें द्रव्य प्रतिक्रमण में तो सही उच्चारण आदि की ओर ही ध्यान रहता है, जबकि " तच्चित्ते तम्मणे तल्लेस्से' होकर अर्थात् प्रतिक्रमण में ही चित्त लगाकर, उसी में मन रमाकर तथा लेश्या भी उसी में रहने पर भाव प्रतिक्रमण होता है। भाव प्रतिक्रमण से ही प्रतिक्रमण का वास्तविक पूर्ण लाभ होता है। द्रव्य प्रतिक्रमण करते हुए भाव प्रतिक्रमण कैसे संभव है? प्रतिक्रमण के पाठ धीरे-धीरे बोलते हुए अन्तर में चिन्तन भी चलना चाहिए। अभी प्रतिक्रमण जल्दी-जल्दी करने में विश्वास रखा जाता है, तो भाव प्रतिक्रमण का लाभ नहीं मिल पाता है । क्या अव्रती को भी प्रतिक्रमण करना चाहिए? यद्यपि प्रतिक्रमण सूत्र में व्रतों में लगे अतिचार आदि की आलोचना की जाती है, किन्तु अव्रती भी प्रतिक्रमण करे तो उसे भी लाभ होता है। प्रतिक्रमण करने या सुनने से उसके प्रतिक्रमण का स्वाध्याय होता है । व्रत के स्वरूप, आगार, अतिचार आदि की जानकारी होती है तथा व्रत लेने की भावना भी बनती है। पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण किन किन पाठों से होते हैं? मिथ्यात्व का प्रतिक्रमण सम्यक्त्व के पाठ से होता है। मिथ्यात्व के प्रतिक्रमण का अर्थ है व्यक्ति सम्यक्त्व के लक्षणों से युक्त हो । वह मिथ्यात्व में चला गया हो तो पुनः सम्यक्त्व में आ जाए। अविरति का प्रतिक्रमण १२ व्रतों के पाठ से एवं पाँच महाव्रतों के पाठ से होता है । प्रमाद का प्रतिक्रमण अनर्थदण्ड विरमण व्रत के पाठ से होता है । यतनापूर्वक कार्य करने से प्रमाद का प्रतिक्रमण होता है । साधु के लिए 'जयं चरे जयं चिट्ठे' आदि गाथा यही संदेश देती है। वास्तव में तो साधक में अप्रमत्तभाव आने से प्रमाद का प्रतिक्रमण होता है। कषाय का प्रतिक्रमण १८ पापस्थानों के पाठ से एवं 'करेमि भंते' के पाठ से होता है, क्योंकि १८ पापस्थानों में चारों कषायों का उल्लेख है तथा 'करेमि भंते' पाठ के द्वारा सावद्य योग से विरति होने के कारण कषाय का भी प्रतिक्रमण होता है। अशुभयोग का प्रतिक्रमण मन, वचन एवं काया के अशुभ में प्रवृत्त न होने पर होता है। यदि प्रवृत्त हुए भी हों तो उनकी आलोचना करने से भी अशुभयोग का प्रतिक्रमण हो जाता है। नवमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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