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________________ 1292 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| प्रश्न अशुभयोग किसे कहते हैं? उत्तर मन-वचन-काया से बुरे विचार करना, कटुवचन बोलना एवं पाप कार्य करना अशुभयोग कहलाता है। प्रश्न काल की दृष्टि से प्रतिक्रमण के कितने भेद हैं? उत्तर आचार्य भद्रबाहु स्वामी ने काल की दृष्टि से प्रतिक्रमण के तीन भेद बताए हैं-१.भूतकाल में लगे दोषों की आलोचना करना। २. वर्तमान में लगने वाले दोषों को सामायिक एवं संवर द्वारा रोकना। ३.भविष्य में लगने वाले दोषों को प्रत्याख्यान द्वारा रोकना। प्रश्न प्रतिक्रमण के 'इच्छामि णं भंते' के पाठ से क्या प्रतिज्ञा की जाती है? उत्तर प्रतिक्रमण करने की और ज्ञान, दर्शन, चारित्र में लगे अतिचारों का चिन्तन करने के लिए कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा की जाती है। प्रश्न अतिचार और अनाचार में क्या अन्तर है ? उत्तर व्रत का एकांश भंग अतिचार कहलाता है। व्रत का सर्वथा भंग अनाचार कहलाता है। प्रत्याख्यान का स्मरण न रहने पर या शंका से जो दोष लगता है, वह अतिचार है एवं व्रत को पूर्णतया तोड़ देना अनाचार है। प्रश्न बारह व्रतों में विरमण व्रत कितने हैं? उत्तर १, २, ३, ४, ५, ८ ये विरमण व्रत हैं। प्रश्न 'इच्छामि ठामि' का पाठ प्रतिक्रमण में क्यों और प्रकट में कितनी बार उच्चारण किया जाता है? उत्तर ग्रहण किये हुए व्रतों में कोई अतिचार दोष लगा हो अथवा व्रत खण्डित या विराधित हुआ हो तो उसको कायोत्सर्ग द्वारा निष्फल करने के लिये यह पाठ बोलते हैं। प्रतिक्रमण करते समय पाँच बार प्रकट में यह पाठ बोला जाता है। प्रश्न 'इच्छामि ठामि' के पाठ में ऐसे कौन-कौन से अक्षर हैं, जो श्रावक के १२ व्रतों का प्रतिनिधित्व करते उत्तरः पंचण्हमणुव्वयाणं-पाँच अणुव्रत, तिण्हं गुणव्वयाणं-तीन गुणव्रत, चउण्हं सिक्खावयाणं-चार शिक्षाव्रत प्रश्न 'मिच्छामि दुक्कडं' का क्या अर्थ है? उत्तर मेरे पाप मिथ्या हों अर्थात् निष्फल हों। प्रश्न जिन-वचनों पर शंका करना दोष क्यों है? उत्तर शंका करने से आस्था कम हो जाती है। आस्थाहीन व्यक्ति के धर्म से च्युत होने में देरी नहीं लगती। जिज्ञासा का निवारण किया जा सकता है, किन्तु व्यर्थ की शंका का नहीं। प्रश्न १८ पापों में सबसे प्रबल पाप कौन सा है? उत्तर ,मिथ्यादर्शन शल्य। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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