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________________ 26 जिनवाणी 15, 17 नवम्बर 2006 त्यों प्रकाशित नहीं करता तो वह भी अपनी आत्मा का अनिष्ट करता है। उसकी आत्मा निर्मल नहीं हो पाती। उसे सच्चा साधक नहीं कहा जा सकता। -आध्यात्मिक आलोक, पृ. ३९८ जैसे पैर में काँटा चुभ जाने पर मनुष्य को चैन नहीं पड़ता, वेदना का अनुभव करता है और शीघ्र से शीघ्र उस काँटे को निकाल देना चाहता है। इसी प्रकार व्रत में अतिचार लग जाने पर सच्चा साधक तब तक चैन नहीं लेता जब तक अपने गुरु के समक्ष निवेदन कर प्रायश्चित्त न कर ले। वह अतिचार रूपी शल्य को निकाल कर ही शान्ति पाता है। ऐसा करने वाला साधक ही निर्मल चारित्र का परिपालन कर सकता है। - आध्यात्मिक आलोक, पृष्ठ ३९८ मनुष्य मन की निर्बलता जब उसे नीचे गिराने लगती है तब व्रत की शक्ति ही उसे बचाने में समर्थ होती है। व्रत अंगीकार नहीं करने वाला किसी भी समय गिर सकता है। उसका जीवन बिना पाल की तलाई जैसा है, किन्तु व्रती का जीवन उज्ज्वल होता है। उसमें एक प्रकार की दृढ़ता आ जाती है, जिससे अपावन विचार उस पर अपना प्रभाव नहीं डाल सकते। अतएव किसी पाप या कुकृत्य को न करना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् न करने का व्रत ले लेना भी आवश्यक है। - आध्यात्मिक आलोक, पृष्ठ २६९ गुणवान् और संस्कार सम्पन्न व्यक्ति ही निष्कपट भाव से अपनी आलोचना कर सकता है। जिसके मन में संयमी होने का प्रदर्शन करने की भावना नहीं है, वरन् जो आत्मा के उत्थान के लिए संयम का पालन करता है, वह संयम में आयी हुई मलिनता को क्षणभर भी सहन नहीं करेगा । -आध्यात्मिक आलोक, पृष्ठ ३९८ मन को सर्वथा निर्व्यापार बना लेना संभव नहीं है। उसका कुछ न कुछ व्यापार होता ही रहता है। तन का व्यापार भी चलेगा और वचन के व्यापार का विसर्जन कर देना भी पौषध व्रत के पालन के लिये अनिवार्य नहीं है। ध्यान यह रखना चाहिये कि ये सब व्यापार व्रत के उद्देश्य में बाधक न बन जाएँ। विष भी शोधन कर लेने पर औषध बन जाता है। इसी प्रकार मन, वचन और काया के व्यापार में आध्यात्मिक गुणों का घात करने की जो शक्ति है उसे नष्ट कर दिया जाय तो वह भी अमृत बन सकता है । तेरहवें गुणस्थान में पहुँचे हुए सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहन्त भगवान् के भी तीनों योग विद्यमान रहते हैं, किन्तु वे उनकी परमात्म दशा में बाधक नहीं होते। इसी प्रकार सामान्य साधक का यौगिक व्यापार यदि चालू रहे, किन्तु वह पापमय न तो व्रत की साधना में बाधक नहीं होता । - नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं, पृष्ठ ४१६ राज्य शासन में तो दोषी के दोष दूसरे कहते हैं, पर धर्म - शासन में दोषी स्वयं अपने दोष गुरु चरणों में निश्छल भाव से निवेदन कर प्रायश्चित्त से आत्म-शद्धि करता है। धर्मशासन में प्रायश्चित्त को भार नहीं माना जाता। आत्मार्थी शिष्य प्रायश्चित्त के द्वारा आत्मशुद्धि करने वाले गुरु को उपकारी मानता है और सहर्ष प्रायश्चित्त का अनुपालन करता है । -नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं, पृष्ठ ४२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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