SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 24 प्रतिक्रमण : जीवन-शुद्धि का उपाय आचार्यप्रवर श्री हस्तीमल जी म. सा. __ अध्यात्मयोगी, युगमनीषी आचार्यप्रवर पूज्य श्री हस्तीमल जी म.सा. अपने प्रवचनों में समय-समय पर प्रतिक्रमण एवं व्रत-ग्रहण से जीवन शुद्धि विषयक विचार अभिव्यक्त करते रहते थे। यहाँ पर पूज्य आचार्यप्रवर के प्रवचन-साहित्य से कतिपय विचार जिनवाणी के सह-सम्पादक श्री नौरतन मेहता ने संकलित किए हैं। -सम्पादक 6 प्रतिक्रमण करने वाले भाई-बहन को चाहिए कि वे अपने जीवन में लगे दोषों का संशोधन करके आत्मा को उज्ज्वल करें। इसीलिए आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान का विधान भगवान् ने श्रावक और साधु सभी के लिए किया है। -नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं, पृष्ठ ४१८ o मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभयोग से जो कचरा आया है, उसे चिन्तन द्वारा बाहर निकालना, पीछे हटाना, इसका नाम है 'प्रतिक्रमण'।-नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं, पृष्ठ ४१९ आज के युग की यह विशेषता और विचित्र प्रकृति है कि आदमी भूल करने पर भी अपनी उस भूल अथवा गलती को मानने के लिए तैयार नहीं होता। बहुत से लोग तो दोष स्वीकार करना मानसिक दुर्बलता मानते हैं। शास्त्र कहते हैं कि जो जातिमान्, कुलमान्, ज्ञानवान् और विनयवान् होगा वही अपना दोष स्वीकार करेगा। आध्यात्मिक क्षेत्र में दोषी स्वयं अपने दोष प्रकट कर पश्चात्ताप करता है। जीवन-शुद्धि के लिए यह आवश्यक है कि साधक सूक्ष्म-दृष्टि से प्रतिदिन अपना स्वयं का निरीक्षण करता रहे। नीतिकार ने कहा है कि “प्रत्यहं प्रत्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः।" कल्याणार्थी को प्रतिदिन अपने चरित्र का सूक्ष्म दृष्टि से निरीक्षण करना चाहिए।-नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं, पृष्ठ ४१९ प्रतिक्रमण केवल पाटियाँ बोलने से ही पूरा नहीं होता है। यह तो एक साधना है जिससे दोष सरलता से याद आ जावें। इसलिए आचार्यों ने, शास्त्रकारों ने प्रतिक्रमण की पाटियाँ आपके सामने रखी हैं। पाठ तोते की तरह बोल गये, मिच्छा मि दुक्कडं जहाँ आया वहाँ मुँह से कह दिया, लेकिन किस बात का 'मिच्छा मि दुक्कडं' इसका पता नहीं। दैनिक व्यवहार करते यदि झूठ बोला गया, माप-तोल में ऊँचानीचा हो गया, किसी से कोई बात मंजूर की, लेकिन बाद में वचन का पालन नहीं किया, कभी चोरी का माल ले लिया, चोरों की मदद की या तस्करी करने में हाथ रहा हो तो उसके लिए अपनी आत्मा से पश्चात्ताप करने का खयाल होना चाहिये। प्रतिक्रमण करने वाले भाई-बहिन जीवन में दोष का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy