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________________ 230 जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006|| यह महत्त्वपूर्ण क्रिया है। अतः प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान का रक्षक है। इससे दोष उत्पन्न ही नहीं हो सकते। यह साधक को जागरूक बनाता है और साधक प्रत्याख्यानों का निरतिचार पालन करते हुए अपने लक्ष्य/गंतव्य तक पहुँच जाता है। प्रतिक्रमण से प्रत्याख्यान पालन में शुद्धि एवं जागरूकता । प्रतिक्रमण भूलशुद्धि की प्रभावी प्रक्रिया है। यदि दोषों की शुद्धि नहीं की गई, उन्हें अन्दर ही दबाकर रखा गया तो अन्दर ही अन्दर विष बढता चला जायेगा और साधक के जीवन को बर्बाद कर देगा, इसलिए दोषों की गर्दा निन्दा करनी चाहिए। यही प्रतिक्रमण है। इससे अर्थात् प्रतिक्रमण से भूलों की दूरी बढ़ेगी और एक दिन साधक उनसे मुक्त हो सकता है अन्यथा विषाक्त स्थिति असाध्य रोग को जन्म दे सकती है। (द्रष्टव्य, आवश्यक सूत्र, प्रस्तावना, श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री) प्रत्याख्यान और प्रतिक्रमण की पारस्परिक पूरकता प्रत्याख्यान न हो तो प्रतिक्रमण किसका किया जाय और प्रतिक्रमण मर्यादा के अतिक्रमण का न किया जाय तो कैसा प्रत्याख्यान- इस प्रकार दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। प्रत्याख्यानों से प्रतिक्रमण की सार्थकता है और प्रतिक्रमण से प्रत्याख्यानों की सार्थकता है। जीवन में दोनों आवश्यक हैं। जब तक जीवन में दोष लगने संभव हैं तब तक प्रतिक्रमण एवं प्रत्याख्यान आवश्यक हैं। संसारी रागद्वेषग्रस्त आत्मा के लिए ये दोनों आवश्यक हैं। लक्ष्य फिर भी वीतरागता का ही होना चाहिए। वीतरागता के राजमार्ग पर आगे बढ़ने के क्रम में प्रतिक्रमण एवं प्रत्याख्यान दोनों का मिलाजुला योगदान है। प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण पुनः पुनः मलिनता से बचाव हेतु प्रतिक्रमण का लक्ष्य है कि पुनः पुनः अतिचार या दोषों का सेवन न हो। प्रत्याख्यान भी इसी लक्ष्य से किए जाते हैं। सामायिकादि से आत्मशुद्धि की जाती है, किन्तु पुनः आसक्तिरूपी तस्करराज अन्तर्मानस में प्रविष्ट न हो, इसके लिए प्रत्याख्यान अत्यन्त आवश्यक है। जैसे एक बार वस्त्र को स्वच्छ बना दिया गया, वह पुनः मलिन न हो इसके लिए वस्त्र को कपाट में रखा जाता है, इसी प्रकार मन में मलिनता न आए इसके लिए भी प्रत्याख्यान किया जाता है। (देवेन्द्रमुनि शास्त्री, आवश्यक सूत्र की प्रस्तावना पृ.५०) इस प्रकार प्रत्याख्यान प्रतिक्रमण को लक्ष्य प्राप्ति में और प्रतिक्रमण प्रत्याख्यान की सिद्धि में सहायक है। सम्बन्धों में शाश्वतता/चक्रवत् आवर्तनवत् - जब तक जीवन में प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान की आवश्यकता है तब तक ये दोनों चक्रवत् क्रमशः प्रयुक्त होते रहेंगे। प्रतिक्रमण किया जायेगा तो समाप्ति में छठे आवश्यक/अंतिम आवश्यक में प्रत्याख्यान भी किए जायेंगे और प्रत्याख्यान के उपरान्त पुनः प्रतिक्रमण भी दूसरे दिन किया जायेगा। स्पष्ट करें तो कहना होगा कि जब-जब प्रत्याख्यान किये जायेंगे तब तब उनमें लगे दोषों या मर्यादा के अतिक्रमण का प्रतिक्रमण भी किया ही जायेगा। जब-जब प्रतिक्रमण किया जाएगा तो अंतिम आवश्यक में प्रत्याख्यान भी ग्रहण किए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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