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15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 227
प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान : पारस्परिक सम्बन्ध
श्री चाँदमल कर्णावट, उदयपुर
भूतकालीन भूलों की शुद्धि का सरल उपाय प्रतिक्रमण है और भविष्यकालीन पापों से बचाने वाला प्रत्याख्यान है । प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान दोनों एक-दूसरे की अपेक्षा रखने से पूरक हैं । लेखक ने विभिन्न बिन्दुओं में प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान के पारस्परिक संबंध को सुस्पष्ट किया है। प्रत्याख्यान की प्रेरणा से सम्पूरित यह लेख पाठकों के जीवन में चेतना लाने वाला है।
-सम्पादक
प्रतिक्रमण जैन धर्म का एक प्रमुख अनुष्ठान है। प्रत्याख्यान भी प्रतिक्रमण (आवश्यक) में किये जाने वाला एक महत्त्वपूर्ण आवश्यक है, जिसे धारण कर भविष्य काल के पापों से साधक बचता है। पहले इन दोनों के विषय में संक्षेप में समझ लेना आवश्यक होगा, जिससे इनका पारस्परिक सम्बन्ध समझा जा
सके।
प्रतिक्रमण क्या है?
प्रतिक्रमण दैनन्दिन होने वाली भूलों/पापों/दोषों से शुद्ध होने की क्रिया है। दिनभर में होने वाली भूलों का चिंतन कर दूसरे दिन इनके न दुहराने का संकल्प प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण का शब्दार्थ है प्रतिक्रमण अर्थात् पापों से पीछे हटना और अपने शुद्ध स्वरूप में आना। आवश्यक चूर्णि में कहा गया है“पडिक्कमणं पुनरावृत्तिः' अर्थात् जिन प्रवृत्तियों से साधक सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र रूप स्वस्थान से (आत्मस्वभाव से) हटकर मिथ्यात्व, अज्ञान एवं असंयममय स्थान में जाने के पश्चात् पुनः उसका अपने आपमें (आत्मस्वभाव में) लौट आना प्रतिक्रमण या पुनरावृत्ति है। आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में और आचार्य हरिभद्र ने आवश्यकवृत्ति में शुभयोगों से अशुभयोगों में जाने पर पुनः शुभ योगों में लौटने को प्रतिक्रमण माना है। प्रतिक्रमण आलोचनापूर्वक 'मिच्छामि दुक्कडं' रूप पश्चात्ताप या प्रायश्चित्त है। यह एक तप है और शुद्धि का कारण है। साध्वी मृगावती ने इसी पश्चात्ताप अथवा प्रायश्चित्त से समस्त कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था।
प्रतिक्रमण आत्मा का स्नान है, जो अनेक जन्मों के कर्ममल को धोकर आत्मा को शुद्ध बनाता है। हमें उपयोगपूर्वक पापों की आलोचना या पश्चात्ताप स्वरूप भाव-प्रतिक्रमण करने का प्रयास करना चाहिए।
आवश्यक नियुक्ति (१२३३) में आचार्य भद्रबाहु ने प्रतिक्रमण के ८ पर्यायवाची शब्दों में निन्दा,
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