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15, 17 नवम्बर 2006
जिनवाणी
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गाथार्थ- एक वर्ष तक का कायोत्सर्ग उत्कृष्ट है और अन्तर्मुहूर्त का जघन्य होता है। शेष कायोत्सर्ग अनेक स्थानों में होते हैं।
अट्ठसदं देवसियं कल्लद्धं पक्खियं च तिण्णिसया । कायव्वा णियमंते अप्पमत्तेण ॥
उस्सासा
- मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६५९ गाथार्थ- - अप्रमत्त साधु को दैवसिक के एक सौ आठ, रात्रिक के इससे आधे - चौवन और पाक्षिक के तीन सौ उच्छ्वास करना चाहिए।
चादुम्मासे चउरो सदाई संवत्थरे य पंचसदा । का ओसग्गुस्सासा पंचसु ठाणेसु णादव्वा ।।
-मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६० गाथार्थ - चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ और सांवत्सरिक में पाँच सौ, इस तरह इन पाँच स्थानों में कायोत्सर्ग के उच्छ्वास जानना चाहिए।
पाणिवह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे चेय । अट्ठसदं उस्सासा काओसग्गीि कादव्वा ॥
-मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६१ गाथार्थ - हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह- इन दोषों के हो जाने पर कायोत्सर्ग में एक सौ आठ उच्छ्वास करना चाहिए।
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भत्ते पाणे गामंतरेय अरहंत समणसेज्जासु । उच्चारे परसवणे पणवीसं होंति उस्सासा ।।
-मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६२ गाथार्थ - भोजन - पान में, ग्रामान्तर गमन में, अर्हंत के कल्याणक स्थान व मुनियों की निषद्या वन्दना में और मल-मूत्र विसर्जन में पच्चीस उच्छ्वास होते हैं।
उसे निछेसे सज्झाए वंदणे य पणिधाणे । सत्तावीसुस्सासा का ओसग्गाि कादव्वा ॥
-मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६३ गाथार्थ - ग्रन्थ के प्रारम्भ में, समाप्ति में, स्वाध्याय में, वन्दना में और अशुभ परिणाम के होने पर कायोत्सर्ग करने में सत्ताईस उच्छ्वासपूर्वक कायोत्सर्ग करना चाहिए ।
का ओसग्गं इरियावहादिचारस्स मोक्खमग्गम्मि | वोसट्ठचत्तदेहा करंति दुक्खक्खयट्ठाए ।
-मूलाचार, षडावश्यकाधिकार, गाथा ६६४ गाथार्थ - मोक्षमार्ग में स्थित होकर ईर्यापथ के अतिचार शोधन हेतु शरीर से ममत्व छोड़कर साधु दुःखों के
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