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| जिनवाणी
|15,17 नवम्बर 2006|| ५. एकाग्रता- शुभध्यान के लिए चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है।
इस प्रकार कायोत्सर्ग से मानसिक, स्नायविक, भावात्मक तनाव समाप्त हो जाते हैं, ममत्व का विसर्जन हो जाता है, सभी नाड़ी तंत्रीय कोशिकाएँ प्राण-शक्ति से अनुप्राणित होती हैं। तनाव के कारण होने वाले ऊपर वर्णित दोष व बीमारियाँ उत्पन्न नहीं होती और यदि वे दोष और बीमारियाँ हों तो धीरे-धीरे समाप्त हो जाती हैं।
दीर्घकालीन अशान्त निद्रा की अपेक्षा स्वल्पकालीन कायोत्सर्ग व्यक्ति को अधिक स्फूर्ति और शक्ति प्रदान करता है। जिन्हें उच्च रक्तचाप आदि के कारण हृदय रोग होने की संभावना रहती है, वे कायोत्सर्ग के नियमित अभ्यास से अपनी प्रतिकार करने की शक्ति को बढ़ाकर इस खतरे से बच सकते हैं।
कायोत्सर्ग भेदविज्ञान की साधना है। अभ्यास करते-करते जब कायोत्सर्ग पुष्ट हो जाता है तब शरीर और आत्मा का भेद स्पष्ट अनुभव होने लगता है।
कायोत्सर्ग आत्मा तक पहुँचने का द्वार है। स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा करने का योग है। श्वास स्थूल है और प्राण सूक्ष्म है। प्राण पर नियन्त्रण होने से अनासक्ति, अपरिग्रहवृत्ति, ब्रह्मचर्य आदि व्रत सहज में सध जाते हैं और दुष्टवृत्तियों में परिवर्तन आ जाता है। घृणा नष्ट हो जाती है। क्रोध की अग्नि शान्त हो जाती है और क्षमा की वर्षा होने लगती है।
श्वास के शिथिल होने से शरीर निष्क्रिय बन जाता है। प्राण शान्त हो जाते हैं और मन निर्विचार हो जाता है। श्वास की निष्क्रियता ही मन की शान्ति और समाधि है। धीमी श्वास धैर्य की निशानी है।
कायोत्सर्ग से प्रज्ञा का जागरण हो जाता है। बुद्धि और प्रज्ञा में इतना ही अन्तर है कि बुद्धि चुनाव करती है कि यह प्रिय है, यह अप्रिय है; किन्तु प्रज्ञा में चुनाव समाप्त हो जाता है। उसके सामने प्रियता और अप्रियता का प्रश्न ही नहीं उठता । उसके सामने समता ही प्रतिष्ठित होती है। जब प्रज्ञा जागती है तो जीवन में समता स्वतः प्रकट होती है और लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, निंदा-प्रशंसा, जीवन-मरण आदि द्वन्द्वों में सम रहने की क्षमता विकसित होती है।
इस मुद्रा व भाव के अभ्यास से आत्मरमणता क्रमशः इतनी बढ़ जाती है कि एक दिन साधक शैलेशी अवस्था प्राप्त कर केवलज्ञानी बनकर मोक्ष सुख प्राप्त कर सकता है। शास्त्रों में इसके उदाहरण विद्यमान हैं। कायोत्सर्ग की स्थिति में महावीर स्वामी के कान में कीलें ठोके जाने पर, संगम द्वारा उपसर्ग करने पर भी वे अविचल रहे। गजसुकुमाल मुनि के सिर पर दहकते अंगारे रखे गए, अवन्तिसुकुमाल का हिंसक पशुओं ने भक्षण किया, किन्तु वे अविचल रहे।
कायोत्सर्ग उसी का सार्थक है जो धर्मध्यान और शुक्लध्यान में किया जाए। कायोत्सर्ग करने वालों को शत-शत वन्दन, हार्दिक अभिनन्दन और मन-वचन-काया से उनका अनुमोदन।
___-पूर्व सांसद एवं विधायक भानपुरा-४५८७७५, जिला-मन्दसौर (म.प्र.)
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