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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 लाभ नहीं होता है। प्रभु ने कहा है जिनवाणी पढिएणवि किं कीरइ, किं वा सुणिएण भावरहिएण । भावो २ कारणभूदो, सायारणायारभूदाण 112 अर्थात् भाव रहित होकर पढ़ने व सुनने से क्या लाभ? चाहे गृहस्थ हो या त्यागी, सभी की उन्नति का मूल कारण भाव है। 207 जो द्रव्य वंदन मात्र व्यवहार के पालनार्थ, लोकलज्जा या स्वार्थ अथवा शिष्टाचार से किया जाता है, वह आत्मकल्याण का कारण नहीं होता है। इस संदर्भ में एक ऐतिहासिक उदाहरण उल्लेखनीय है। एक बार श्री कृष्णवासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि व उनके श्रमणों के दर्शनार्थ आए एवं उन्हें विशुद्ध भावों से श्रद्धा भक्तिपूर्वक सविधि वंदन किया। दूसरी ओर श्रीकृष्ण के साथ आए उनके भक्त वीरक कौलिक भी अपने स्वामी श्रीकृष्ण को खुश करने हेतु उनके पीछे-पीछे उनकी तरह ही (द्रव्य से) वंदना करते गये। तभी प्रभु से वंदना का फल पूछा गया । प्रभु ने फरमाया श्रीकृष्ण वासुदेव ने भाव सहित श्रद्धापूर्वक सविधि वंदना करने से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर तीर्थंकर गोत्र अर्जित कर लिया है तथा सातवीं से चौथी नरक तक के कर्म-बंधन तोड़ दिये हैं। किन्तु वीरक ने जो अपने स्वामी की देखादेखी मात्र द्रव्य से वंदन किया है, उसका प्रतिफल मात्र श्री कृष्ण वासुदेव की संतुष्टि एवं प्रसन्नता मात्र है । उत्तम वंदना हेतु वंदना के अनादृत (अनादर), स्तब्ध (मद) आदि ३२ दोषों' को टालकर वंदना की जानी चाहिए। वंदना का महत्त्व भावभक्ति एवं श्रद्धापूर्वक सविधि परमेष्ठी वंदना का बड़ा महत्त्व है, यथा१. मुक्ति प्राप्ति का सहज सर्वोत्तम साधन- श्री देवचन्द्र जी म. सा. ने कहा है एक बार प्रभु वंदना रे, आगम रीते थाय । कारण सत्ये कार्यनी रे, सिद्धि प्रतीत कराय ।। अर्थात् एक बार आगम विधि अनुसार की गई प्रभु (परमेष्ठी) वंदना, सत्य (मोक्ष) का कारण होकर उसकी सिद्धि कराने में समर्थ होती है । Jain Education International २. तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन का मुख्य हेतु- सर्वोत्कृष्ट पुण्य प्रकृति तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन बीस बोलों की आराधना से होता है। पंचपरमेष्ठी की भक्तिभावपूर्वक वंदना स्तुति करने से बीस बोलों में से आठ बोलों की आराधना निम्न प्रकार हो जाती है- १. अरिहंतों की भक्ति २. सिद्धों की भक्ति ३ प्रवचन - ज्ञान - धारक संघ की भक्ति ४. गुरु महाराज की भक्ति ५. स्थविरों की भक्ति ६. बहुश्रुत मुनियों की भक्ति ७. तपस्वी मुनियों की भक्ति ८. परमेष्ठी व गुणियों का विनय । शेष बारह बोलों की भी भाव वंदना से देश आराधना हो जाती है । ३. स्वर्ग प्राप्ति का प्रमुख हेतु- शास्त्रकार कहते हैं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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