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जिनवाणी
15, 17 नवम्बर 2006
उपभोग स्वाद के लिए करना । भूख न होने पर भी स्वाद के लिए खाना, शरीर की रक्षा के लिए नहीं, मौज-शोक के लिए वस्त्र पहनना आदि ।
चार शिक्षाव्रत
बार-बार अभ्यास करने योग्य व्रतों का नाम शिक्षाव्रत है। शिक्षा का अर्थ है - अभ्यास । जैसे विद्यार्थी पुनः - पुनः अभ्यास करता है वैसे ही श्रावक को पुनः पुनः जिन व्रतों का अभ्यास करना चाहिए, उन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा है। अणुव्रत और गुणव्रत जीवन में प्रायः एक ही बार ग्रहण किये जाते हैं । किन्तु शिक्षाव्रत बार-बार । ये कुछ समय के लिए होते हैं। शिक्षाव्रत चार प्रकार के हैं - १. सामायिक व्रत, २. देशावकासिक व्रत, ३. पौषधोपवास व्रत और ४. अतिथिसंविभाग व्रत ।
पाँच अणुव्रत और तीन गुणव्रतों की भली-भाँति रक्षा करने के लिए चार शिक्षाव्रतों की शिक्षा दी गयी है। जैसे राजा या न्यायाधीश अपराध करने वाले को शिक्षा या दण्ड देकर भूतकाल के अपराधों से निवृत्त करता है और भविष्य के लिए सावधान कर देता है, उसी प्रकार गुरु आदि प्राणातिपात विरमण आदि आठों व्रतों में प्रमाद आदि किसी कारण से हुई त्रुटि के लिए इन चार शिक्षा व्रतों में से किसी व्रत का दण्ड दे देते हैं जिससे भूतकालीन दोषों की • शुद्धि हो जाय और भविष्य में सावधानी रखी जाए। इस कारण से भी ये शिक्षाव्रत कहलाते हैं।
१. पहला शिक्षाव्रत 'सामायिक'
सामायिक व्रत पहला शिक्षाव्रत है। श्रावक के बारह व्रतों के क्रम में यह नौवां व्रत है। आध्यात्मिक आराधना एवं सदाचरण का अभ्यास करने के लिए सामायिक व्रत का अनुशीलन महान् लाभप्रद है। 'सम' और 'आय' शब्द से 'समाय' एवं फिर उससे 'सामायिक' शब्द बनता है अर्थात् समता का लाभ । जिस क्रिया विशेष से समभाव की प्राप्ति होती है वह सामायिक है । सामायिक में सावद्य योग का त्याग होता है और निरवद्य योग, पाप रहित प्रवृत्ति का आचरण होता है। समभाव का आचरण करने से सम्पूर्ण जीवन समतामय हो जाता है। सामायिक का स्वरूप इस प्रकार है -
समता सर्वभूतेषु, संयमः शुभ भावना । आर्त्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं व्रतम् ॥
अर्थात् प्राणिमात्र के प्रति समता का भाव रखना, पाँचों इन्द्रियों को वश में रखना, हृदय में शुभ भावना रखना और आर्त्तध्यान तथा रौद्रध्यान का त्याग करके धर्मध्यान में लीन होना सामायिक व्रत है। यह दो घड़ी का आध्यात्मिक स्नान है, जो जीवन को निष्पाप, निष्कलंक एवं पवित्र बनाता है ।
इस व्रत के पाँच अतिचार -
१. मनोदुष्प्रणिधान - मन में बुरे संकल्प करना। मन को सामायिक में न लगाकर सांसारिक कार्यो में लगाना । २. वचन दुष्प्रणिधान - सामायिक में कटु, कठोर, निष्ठुर, असभ्य तथा सावद्य वचन बोलना। किसी की निन्दा
आदि करना ।
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