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| जिनवाणी
||15,17 नवम्बर 2006 ___ अतः आज प्रतिक्रमण को लेकर कुछ विचारणा करते हैं, क्रमण शब्द का अर्थ है- चलना और प्रतिक्रमण का अर्थ है लौटना। शास्त्र में इसे आवश्यक के नाम से कहा गया है ‘अवश्यं कर्त्तव्यम् आवश्यकम्'। साधु-साध्वी एवं श्रावक-श्राविका रूप चारों संघ को दोनों समय अवश्य करना चाहिये, अतः इसे आवश्यक कहा गया है। आर्यक्षेत्र भारतवर्ष की विभिन्न धर्म-परम्पराओं में आत्मशुद्धि हेतु संध्या कर्म, प्रतिक्रमण, पश्चात्ताप, तोबा के रूप में यह साधना मिलती है। वीतराग वाणी में प्रतिक्रमण का शाब्दिक अर्थ है- वापस लौटना, विभाव से स्वभाव में आना, बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी बनना, प्रमाद की स्वीकृति अर्थात् पापाचरण की आलोचना कर मर्यादा में वापस आना। सरल शब्दों में- 'अपने गुणों में जो अतिक्रमण हुआ है, उससे प्रतिक्रमण करना, वापस लौटना। यति वृषभाचार्यकृत तिलोयपन्नत्ति और हारिभद्रीय आवश्यक सूत्र वृत्ति अध्ययन ४ गाथा १२३३-१२४२ में प्रतिक्रमण के ८ पर्यायवाची नाम दिये गये हैं- १. प्रतिक्रमणआत्मशुद्धि के क्षेत्र में लौटना २. प्रतिसरण- संयम-साधना में अग्रसर होना ३. प्रतिहरण- अशुभ योगों का त्याग करना ४. धारणा- शुभ भावनाओं को धारण करना ५. निवृत्ति- अशुभ भावों से निवृत्त होना ६. निंदाअपने पापों की आत्मसाक्षी से निन्दा करना ७. गर्हा- गुरु साक्षी से पापों को प्रकट करना ८. शुद्धि-व्रतों में लगे दोषों की शुद्धि करना।
___ वैदिक परम्परा में इसे संध्या कर्म के नाम से कहा गया है। यजुर्वेद में उच्चरित मंत्र का अर्थ करते हुए कहा है- मैं आचरित पापों के क्षय के लिये यह उपासना सम्पन्न करता हूँ; मेरे मन, वाणी और शरीर से जो भी दुराचरण हुआ, उसका मैं विसर्जन करता हूँ। तो पारसी धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ 'खोरदेअवस्ता' में कहा गया है- मैंने मन से जो बुरे विचार, वाणी से तुच्छ भाषण और शरीर से जो घृणित कार्य किया, उन सबके लिए पश्चात्ताप करता हूँ, अपराध से अलग होकर पवित्र होता हूँ। इसी प्रतिक्रमण को ईसाई धर्म में 'कन्फेशन' अर्थात् पाप की स्वीकृति कर, आचरित पापों को धर्मगुरु, पोप या पादरी से कहकर प्रायश्चित्त करने का विधान है। बौद्ध धर्म में- प्रतिक्रमण के प्रतिकर्म, प्रवारणा और पापदेशना ये नाम मिलते हैं। प्रवारणा की तिथि पर भिक्षु-भिक्षुणी व संघ के सदस्य सभी इकट्ठे होते हैं और आचार के नियमों का पाठ बोलते हैं, फिर भिक्षु से पृच्छा की जाती है, नहीं बोलने पर संघ से पृच्छा की जाती है- इस आचार का किसी ने भंग तो नहीं किया? किसी की सूचना नहीं मिलने पर शिकायत करने की पृच्छा की जाती है, वह नहीं मिलने पर 'निर्दोष कहकर' आगे का नियम पढ़ा जाता है- यदि किसी ने भंग किया हो तो उसे यथोचित प्रायश्चित्त दण्ड दिया जाता है। इस्लाम धर्म में महात्मा अबूबकर ने कहा है- तौबा, खेद, पछतावा (प्रायश्चित्त) आदि छः बातों से पूरा होता है- १. पिछले पापों पर लज्जित होने से २. फिर पाप न करने का प्रयत्न (प्रतिज्ञा) करने से ३. मालिक की जो सेवा छूट गई हो, उसे पूरा करने से ४. अपने द्वारा हुई हानि का घाटा भर देने से ५. हराम के खाने से- जो लोहू और चर्बी बढ़ी है, उसे तप से धुला डालने से ६. शरीर ने पापों से जितना सुख उठाया है, सत्य धर्म में उसे उतना ही दुःख देने से तौबा होता है। प्रतिक्रमण का आंग्ल भाषा में साम्य रखने वाला एक
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