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________________ जिनवाणी |15,17 नवम्बर 2006|| भगवान् के बताए हुए मार्ग पर चलने वाले, जिनवाणी का उपदेश देने वाले गुरुओं को यथाविधि भक्तिभावपूर्वक वंदन-नमस्कार कर सकता है। अतएव चतुर्विंशतिस्तव के बाद वंदना आवश्यक को स्थान दिया गया है। ४. चौथा आवश्यक : प्रतिक्रमण- छह आवश्यकों में प्रतिक्रमण चौथा आवश्यक है। आजकल 'आवश्यक' की संज्ञा प्रतिक्रमण प्रचलित है। इसके कई कारण हो सकते हैं। प्रतिक्रमण चतुर्थ आवश्यक है और सब आवश्यकों में अक्षर प्रमाण में बड़ा है। अतः सभी आवश्यकों को प्रतिक्रमण नाम से पुकारा जाने लगा हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। दूसरा कारण श्रमण भगवान् महावीर का सप्रतिक्रमण धर्म है। अतः प्रतिदिन प्रातः सायं, प्रतिक्रमण करना साधक के लिए आवश्यकीय है अर्थात् सायं-प्रातः प्रतिक्रमण ‘आवश्यक' का नियत काल है। अन्य आवश्यक प्रतिक्रमण आवश्यक की पूर्व भूमिका एवं उत्तरक्रिया के रूप में ही प्रायः होते हैं। इसलिए सभी आवश्यकों को प्रतिक्रमण' नाम हो जाना सहज लगता है। वंदना आवश्यक के पश्चात् प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि जो राग-द्वेष रहित समभावों से गुरुदेवों की स्तुति करने वाले हैं वे ही गुरुदेव की साक्षी से अपने पापों की आलोचना कर सकते हैं, प्रतिक्रमण कर सकते हैं। जो गुरुदेव को वंदन ही नहीं करेगा, वह किस प्रकार गुरुदेव के प्रति बहुमान रखेगा और अपना हृदय स्पष्टतया खोल कर कृत पापों की आलोचना करेगा? जो पाप मन से, वचन से और काया से स्वयं किये जाते हैं, दूसरों से कराये जाते हैं और दूसरों के द्वारा किए हुए पापों का अनुमोदन किया जाता है उन सब पापों की निवृत्ति के लिए कृत पापों की आलोचना करना, निन्दा करना प्रतिक्रमण है। प्रतिक्रमण करने से आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में आती है। व्रत में लगे हुए दोषों की सरल भावों से प्रतिक्रमण द्वारा शुद्धि करना और भविष्य में उन दोषों का सेवन न करने के लिए सतत जागरूक रहना ही प्रतिक्रमण का वास्तविक उद्देश्य है। प्रतिक्रमण का लाभ बताते हुए उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २९ में पृच्छा की है कि - "हे भगवन्! प्रतिक्रमण करने से जीव को क्या लाभ होता है?" भगवान् ने कहा- “हे गौतम! प्रतिक्रमण करने वाला व्रतों में उत्पन्न हुए छिद्रों को बंद करता है। फिर व्रतों के दोषों से निवृत्त बना हुआ शुद्ध व्रतधारी जीव आस्रवों को रोक कर तथा शबलादि दोषों से रहित शुद्ध संयम वाला होकर आठ प्रवचन माताओं में सावधान होता है और संयम में तल्लीन रहता हुआ समाधिपूर्वक अपनी इन्द्रियों को असन्मार्ग से हटा कर संयममार्ग में विचरण करता है अर्थात् आत्मा के संयम के साथ एकमेक हो जाता है। जो इन्द्रियाँ बाह्योन्मुखी हैं, वे अन्तर्मुखी हो जाती हैं। इन्द्रियाँ मन में लीन हो जाती हैं और मन आत्मा में रम जाता है। इस प्रकार प्रतिक्रमण जो वापस लौटने की प्रक्रिया से चालू हुआ था, वह धीरे-धीरे आत्म-स्वरूप की स्थिति में पहुँच जाता है। यही है प्रतिक्रमण का पूर्ण फल। प्रतिक्रमण की यही है उपलब्धि।" For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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