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________________ 142 15. 17 नवम्बर 2006 जिनवाणी समभाव की प्राप्ति होना अर्थात् राग-द्वेष रहित माध्यस्थ भाव 'सामायिक' है। ममत्व भाव के कारण आत्मा अनादिकाल से चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण कर रही है। ऐसी आत्मा को समभाव में रमण कराने के लिए सावद्य योगों से निवृत्ति आवश्यक है, जो कि सामायिक से संभव है। आत्मोत्थान के लिए सामायिक मुख्य प्रयोग है, मोक्ष प्राप्त करने का उपाय है। समस्त धार्मिक क्रियाओं के लिए आधारभूत होने से ही सामायिक को प्रथम स्थान प्रदान किया गया है। सामायिक अर्थात् आत्म-स्वरूप में रमण करना, सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप में तल्लीन होना। सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप ही मोक्ष मार्ग है। मोक्षमार्ग में सामायिक मुख्य है यह बताने के लिए ही सामायिक आवश्यक को सबसे प्रथम रखा गया है। अपने शुद्ध स्वरूप में रहा हुआ आत्मा ही सामायिक है। शुद्ध, बुद्ध, मुक्त चिदानंद स्वरूप आत्मतत्त्व की प्राप्ति करना ही सामायिक का प्रयोजन है।' मैं कौन हूँ? मेरा स्वरूप कैसा है ? आदि विचारने में तल्लीन होना, आत्म गवेषणा करना सामायिक है। सच्चा सामायिक व्रत क्या है? इसकी परिभाषा बताते हुए कहा है- जिसकी आत्मा संयम, नियम और तप में तल्लीन है उसी का सामायिक व्रत है, ऐसा केवल ज्ञानियों ने फरमाया है। जो त्रस और स्थावर सभी जीवों को अपनी आत्मा के समान मानता है, सभी प्राणियों पर समभाव रखता है, उसी का सच्चा सामायिक व्रत है, ऐसा केवलज्ञानियों ने फरमाया है। ' सामायिक के आध्यात्मिक फल के लिए गौतम स्वामी प्रभु महावीर स्वामी से पूछते हैं कि हे भगवन्! सामायिक करने से जीव को क्या लाभ होता है? । भगवान् ने फरमाया सामायिक करने से सावद्य योग से निवृत्ति होती है।' अर्थात् पाप कर्मों से सम्पूर्ण निवृत्ति होने पर आत्मा पूर्ण विशुद्ध और निर्मल बन जाती है यानी मोक्ष पद को प्राप्त कर लेती है। सामायिक की साधना उत्कृष्ट है। सामायिक के बिना आत्मा का पूर्ण विकास असंभव है। सभी धार्मिक साधनाओं के मूल में सामायिक रही हुई है । समता भाव की दृष्टि से ही सामायिक आवश्यक को प्रथम स्थान प्राप्त है। - २. दूसरा आवश्यक : चउवीसत्थव- प्रथम सामायिक आवश्यक के बाद दूसरा आवश्यक है। चतुर्विंशतिस्तव । सावद्ययोग से विरति सामायिक आवश्यक है। सावद्य योग से निवृत्ति प्राप्त करने के लिए जीवन को राग-द्वेष रहित अर्थात् समभाव युक्त विशुद्ध बनाने के लिए साधक को सर्वोत्कृष्ट जीवन वाले महापुरुषों के आलम्बन की आवश्यकता रहती है। चौबीस तीर्थंकर जो रागद्वेष रहित समभाव में स्थित वीतराग पुरुष हैं, सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं, त्याग, वैराग्य और संयम साधना के महान् आदर्श हैं, उनकी स्तुति करना उनके गुणों का कीर्तन करना 'चतुर्विंशतिस्तव' कहलाता है। तीर्थंकरों, वीतराग देवों की स्तुति करने से साधक को महान् आध्यात्मिक बल व आदर्श जीवन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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