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________________ ||15,17 नवम्बर 2006|| जिनवाणी उपयुक्त है अथवा नहीं? पाँच पाठ - १. निद्रा दोष निवृत्ति का पाठ (शय्या सूत्र) २. गोचरीचर्या का पाठ, ३. काल प्रतिलेखना का पाठ, ४. असंयम आदि ३३ बोलों का पाठ, ५. निर्ग्रन्थ प्रवचन का पाठ (प्रतिज्ञा सूत्र । (१) निद्रादोष निवृत्ति (शय्या सूत्र)- यह तर्क दिया जाता है कि श्रावक को भी पौषध, दया, संवर आदि प्रसंगों में निद्रा में लगे दोषों की निवृत्ति हेतु यह पाठ बोलना आवश्यक है। किसी दूसरे पाठ से निद्रा दोष की निवृत्ति नहीं हो पाती। ऐसा कहना उपयुक्त नहीं, क्योंकि दया, पौषधगत सभी दोषों की आलोचना ग्यारहवें पौषधव्रत के पाँच अतिचारों से हो जाती है। उसमें भी पाँचवाँ अतिचार पोसहस्स सम्म अणणुपालणया अर्थात् पौषध का सम्यक् प्रकार से पालन न किया हो, के अन्तर्गत दोषों का शुद्धीकरण हो जाता है। पौषध के १८ दोषों में से किसी दोष का सेवन हुआ हो तो उसके लिये भी ग्यारहवें व्रत में 'मिच्छामि दुक्कड' दिया जाता है। (२) गोचरीचर्या का पाठ- अनेक श्रावक दयाव्रत की आराधना में गोचरी करते हैं। प्रतिमाधारी श्रावक भी गोचरी लाते हैं, अतः श्रावकों को गोचरी में लगे अतिचारों की शुद्धि करने हेतु गोचरीचर्या का पाठ बोलना आवश्यक है, ऐसा तर्क दिया जाता है। किन्तु प्रायः वर्तमान में श्रावकों द्वारा ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा स्वीकार करने का प्रसंग ही नहींवत् आता है। ग्यारहवीं श्रावक प्रतिमा के लिये ही गोचरी का विधान है, अतः यह स्पष्ट है कि गोचरीचर्या का पाठ श्रमणों के लिये ही है। (३) काल प्रतिलेखना का पाठ-अनेक श्रावक-श्राविका दया-पौषध आदि में चारों काल स्वाध्याय करते हैं, स्वाध्याय करने में जो अतिचार लगे हों उनकी शुद्धि हेतु यह पाठ बोलना आवश्यक है,ऐसा कहा जाता है। यह सही है कि श्रावक भी पौषध, दया में उभयकाल प्रतिलेखन करते हैं, कई विशेष धर्म-श्रद्धा वाले चारों कालों में स्वाध्याय भी करते हैं। पौषध में लगे अतिचारों की शुद्धि तो पौषध पारने के पाठ से हो ही जाती है। सामान्य श्रावक के दोनों वक्त प्रतिलेखन का नियम भी नहीं होता। शायद ही कोई ऐसा श्रावक हो जो उभयकाल फर्नीचर, प्लास्टिक, काँच एवं स्टील के बर्तन, कपड़े आदि की प्रतिलेखना करता हो। साधु के लिये तो दोनों समय प्रतिलेखन तथा प्रतिदिन चारों काल स्वाध्याय करना आवश्यक है, अतः साधु-साध्वी के लिये ही यह पाठ बोलना आवश्यक है, श्रावक श्राविकाओं के लिए नहीं। (४) असंयम आदि १ से ३३ तक बोल- कुछ परम्पराओं का मन्तव्य है कि इन ३३ बोलों में कुछ बोल हेय, कुछ ज्ञेय तथा कुछ उपादेय हैं। अतः ३३ बोलों का ज्ञान श्रावकों के लिये अनिवार्य है, इसलिये श्रावक प्रतिक्रमण में बोलना आवश्यक है। मात्र ज्ञेयता के आधार पर श्रमण सूत्र के पाठों को श्रावक-प्रतिक्रमण में जोड़ना योग्य नहीं कहा जा सकता। फिर तो ५ महाव्रत, ५ समिति, ३ गुप्ति, ६ कायरक्षा के पाठ भी श्रावक के लिये ज्ञेय हैं तथा पौषध आदि के अवसरों पर, मनोरथ चिन्तन के समय ध्यातव्य हैं, वे पाठ श्रावक-प्रतिक्रमण में क्यों नहीं जोड़े जाते? देखा जाय तो इन ३३ बोलों का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के ३१ वें अध्ययन में किया गया है। वहाँ उल्लेख है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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