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________________ 15, 17 नवम्बर 2006 कायोत्सर्ग जिनवाणी कायोत्सर्ग पाठ प्रत्याख्यान- दशविध प्रत्याख्यान का पाठ प्रतिक्रमण में पाँच समिति, तीन गुप्ति, पंच महाव्रत, रात्रि भोजन त्याग, अठारह पापस्थान, पृथ्वीकाय, अपूकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय की विराधना सहित- सबके मिच्छा मि दुक्कडं के पाठ दशवैकालिक सूत्र आदि आगमों के आधार से श्रमण प्रतिक्रमण में जोड़े गए हैं। इसी प्रकार बड़ी संलेखना का पाठ, दर्शन सम्यक्त्व का पाठ, आयरिय उवज्झाए आदि दोहे, खामेमि सव्वे जीवा, चौरासी लाख जीवयोनि का पाठ, नमोत्थुणं आदि भी आवश्यक सूत्र में योजित किए गए हैं। इन सब पाठों के योजित होने एवं निश्चित विधि का निर्धारण होने से भ्रमण प्रतिक्रमण समग्रता से युक्त है। 13 प्रतिक्रमण का जैन परम्परा में शाश्वत महत्त्व होते हुए भी इसके पाठों को लेकर थोड़ा-थोड़ा भेद रहा है । श्वेताम्बर श्रमण प्रतिक्रमण का आधार आवश्यक सूत्र है तथा श्रावक प्रतिक्रमण में बारह व्रतों के अतिचारों का आधार उपासकदशांग सूत्र रहा है। श्वेताम्बर - मूर्तिपूजक तपागच्छ, खरतरगच्छ आदि परम्पराओं में बारह व्रतों की आलोचना के लिए 'वंदित्तु सूत्र' का महत्त्वपूर्ण स्थान है जो आचार्यों द्वारा प्राकृत के ५० पद्यों में निबद्ध है। इसके अतिरिक्त सकलार्हत् स्तोत्र, अजित-शांति स्तवन आदि भक्तिपरक स्तुतियाँ बोली जाती हैं। इनसे पूर्व खरतरगच्छ के महान् आचार्य जिनप्रभसूरि (१३वीं १४वीं शती) द्वारा रचित विधिमार्गप्रपा नामक ग्रन्थ में दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के स्वरूप, विधि आदि का निरूपण किया गया है । विस्तार के लिए द्रष्टव्य है इसी विशेषांक में लेख " खरतरगच्छ और तपागच्छ में प्रतिक्रमण सूत्र की परम्परा ।" इस लेख के पाद टिप्पणों में खरतरगच्छ और तपागच्छ परम्पराओं के वर्तमान में प्रचलित अन्तर को भी रेखांकित किया गया है । तपागच्छ के वर्तमान प्रतिक्रमण सूत्र के तीन पाठों वंदितु सूत्र, सकलार्हत् स्तोत्र और अजित-शांति स्तवन का परिचय श्री छगनलाल जैन के लेख में दिया गया है। उल्लेखनीय है कि श्वेताम्बर स्थानकवासी, मूर्तिपूजक और तेरांपथ के प्रतिक्रमण में करेमि भंते, इच्छामि खमासमणो, तस्सउत्तरी, लोगस्स, नमोत्थुणं आदि अनेक पाठ समान हैं। प्रतिक्रमण को उपयोगी एवं रोचक बनाने की दृष्टि से समय-समय पर प्रयास होते रहे हैं। स्थानकवासी प्रतिक्रमण में भाव वन्दना और उसके तिलोकऋषि जी के सवैया इसी के उदाहरण हैं । तेरापंथ सम्प्रदाय के प्रतिक्रमण पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि इस परम्परा के श्रावक प्रतिक्रमण में व्रतों के अतिचारों के पाठ आचार्य श्री तुलसी जी के द्वारा रचित गेय हिन्दी पद्यों में निबद्ध किए गये हैं और प्राकृत पाठ हटा दिये गये हैं। Jain Education International दिगम्बर सम्प्रदाय में भी प्रतिक्रमण किये जाने की परम्परा है। मूलाचार आदि ग्रन्थों में षडावश्यकों का विस्तार से निरूपण भी है, किन्तु वर्तमान में प्रतिक्रमण करने की परम्परा मुनियों तक सीमित है। बिरले ही ऐसे दिगम्बर श्रावक होंगे जो नियमित रूप से प्रतिक्रमण करते होंगे। इस परम्परा में भी प्रतिक्रमण के अन्तर्गत वर्तमान में भक्ति पाठों का अधिक सन्निवेश हो गया है। इसलिए कुछ परम्पराएँ सदैव अमूर्त भावों पर कम एवं मूर्त क्रियाओं पर अपना आग्रह रखती आई For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002748
Book TitleJinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2006
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size19 MB
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