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________________ ४४४ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री ग्रह के दुष्परिणामों का आज तक किसी भी खगोलशास्त्री ने विश्लेषण किया ही नहीं। इसके व्यापक दुष्प्रभावों को विज्ञान समझ नहीं पाया। इसके दुष्प्रभावों को आध्यात्मिक शास्त्रों ने समझाया है। योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने इसके दुष्प्रभावों का वर्णन करते हुए कहा है - - असंतोषमविश्वासमारंभं दुःखकारणम् । मत्वा मूर्च्छाफलं कुर्यात्, परिग्रहनियंत्रणम् ।। असंतोष, अविश्वास, आरंभ - समारंभ ( अतिऔद्योगिकरण ) दुःख, कष्ट और अशांति रूपी फल देने के कारण परिग्रह को नियंत्रित करने की प्रेरणा दी है। उ. यशोविजयजी ने भी बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों परिग्रह को त्याग करने की प्रेरणा देते हुए कहा है कि यस्त्यक्त्वा तृणवद्, बाह्यमाभ्यन्तरं च परिग्रहम् । उदास्ते तत्पदांभोजे पर्युपास्ते जगत्त्रयी ॥ ॥ ३ ॥ धन संपदा आदि बाह्य परिग्रह तथा विषय, कषाय आदि आभ्यन्तर परिग्रह दोनों का जो तृण के समान त्याग कर देता है वह महापुरुष पूजनीय होता है। जिसके हृदय में आध्यात्मिक मूल्यों की प्रतिष्ठा है उसके लिए भौतिक सुख भौतिक समृद्धि तृणतुल्य ही है। आध्यात्मिक जीवनशैली में वे सभी तत्त्व मौजूद है जो आज के युग की समस्याओं के समाधान में आवश्यक है। आध्यात्मिक जीवनशैली स्वस्थ समाज रचना तथा विश्वशांति के हेतु मूलतः परिग्रह तथा हिंसा के अल्पीकरण का सिद्धान्त देती है। आध्यात्मिक जीवनशैली विश्वशांति हेतु नींव का पत्थर सिद्ध हो सकती हैं। इच्छा नियंत्रण परिग्रह परिमाण व्रत के रूप में उसकी वैज्ञानिकता इस दृष्टिकोण से सिद्ध है कि आज पर्यावरणविद् परिवेश विशेषज्ञ एक स्वर में विश्व को चेतावनी दे रहे हैं कि परिवेश का संतुलन बनाये रखना है, स्व अस्तित्त्व की रक्षा करनी है तो प्रकृति विजेता मानव को अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना होगा। Jain Education International वर्तमान में उपाध्याय यशोविजयजी के सिद्धान्तों के द्वारा उनके आध्यात्मिक दृष्टिकोण द्वारा, भेद विज्ञान द्वारा पुस्तकों के माध्यम से तथा प्रवचनों के माध्यम से अनेक आचार्य, मुनि भगवंत युवकों में जागृति लाने का प्रयास कर रहे हैं। किंतु यह प्रयास काफी नहीं है। आध्यात्मिक मूल्यों को जीवन्त बनाने हेतु दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक है । दृष्टिकोण में परिवर्तन हेतु वैयक्तिक एवं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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