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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ४३५ का प्रतिफल घृणा अविश्वास, असहयोग, राजदण्ड, आत्मदण्ड आदि है। साथ ही जिसने विश्वस्ता का सिक्का दूसरों पर जमा लिया, अच्छी सही चीजें उचित मूल्य पर दी, ईमानदारी से व्यापार किया और व्यवहार में प्रामाणिकता सिद्ध कर दी, तो लोग उस पर मुग्ध हो जाते हैं। सदा सर्वदा के लिए उसके ग्राहक प्रशंसक एवं सहयोगी बन जाते हैं और सबसे बड़ा सुख आत्मसंतोष की प्राप्ती होती है। आज विश्व में जो भ्रष्टाचार बढ़ा है उसका एक मुख्य कारण हमारे राजतंत्र का भ्रष्ट होना है। वर्तमान राजनीति आदर्शविहीन है। जब प्रशासन तंत्र ही भ्रष्ट होगा तो फिर भ्रष्टाचार का निवारण कैसे संभव होगा। वर्तमान युग में आज चाहे कहने के लिए हम प्रजातंत्र में जी रहे हैं किंतु इस प्रजातंत्र में जो लोग सत्ता पर हावी हो रहे हैं। वे भ्रष्ट आचरणों के माध्यम से ही सत्ता में आते है और परिणाम स्वरूप सत्ता में आकर ही भ्रष्ट आचरण से लिप्त रहते हैं। अतः भ्रष्टाचार का निवारण तब ही संभव है जब प्रशासन तंत्र में राष्ट्र भक्ति और मानव कल्याण की वृत्ति का विकास हो किंतु यह तभी संभव होगा जब चरित्रवान् और मानवहित के शुभेच्छु व्यक्ति प्रशासन में आए। (E) सम्प्रदायवाद एक समस्या : सम्प्रदायवाद की समस्या भी विश्वव्यापी है। चाहे उसकी मात्रा में भिन्नता हो उसके रूप में अन्तर हो फिर भी सम्प्रदायवाद की समस्या सभी कालों में ओर सभी देशों में रही है। प्राचीन इतिहासों में भी सम्प्रदाय के नाम पर कितने झगड़े हुए, खून खराबे हुए, मंदिरों और मस्जिदों को तोड़ा गया और आज भी यह झगड़े जारी है। हम सर्वप्रथम यह बताना चाहेंगे कि सम्प्रदाय किसे कहते हैं तथा धर्म और सम्प्रदाय में क्या अन्तर है। साधना का सामुदायिक रूप, संघबद्धता सम्प्रदाय कहलाता है। सम्प्रदाय एक साधन है। जीवन यापन की परस्परता या सहयोग। वह व्यक्ति को धर्म के लिए प्रेरित कर सकता है किंतु स्वयं धर्म नहीं है। आज धर्म और सम्प्रदाय को एक मान लिया गया है इसलिए लोगों की यह धारणा हो गई है कि धर्म के कारण कितनी लड़ाइयाँ हुईं, कितनी बार खून की होली खेली गई, कितने देश उजड़े? किंतु विवेकपूर्वक विचार करने पर समझ में आ जाता है कि धर्म के कारण न भी ऐसा हुआ है और न कभी होगा। क्योंकि धर्म का अर्थ है राग द्वेष से मुक्त, आसक्ति से मुक्त, तृष्णा से मुक्त जीवन जीना। दशवैकालिक में अहिंसा संयम और तप को धर्म कहा है। कोई भी व्यक्ति अगर रागद्वेष से मुक्त अहिंसा संयम से मुक्त जीवन जीएगा तो लड़ाइयाँ कहाँ होंगी? डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है कि “धर्म स्वभाव है वह आन्तरिक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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