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________________ उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ४३३ काम नहीं करेंगे केवल गिद्धदृष्टि से यह देखा करेंगे की कब कोई जरुरतमंद आ सकता जिसको मुर्गा बना सकें। वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में तथा निजी उद्योगों में तो भ्रष्टाचार यहाँ तक घुस गया है कि अब कोई चीज शुद्ध मिलती ही नहीं है। अधिकाधिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। लोग छलकपट, अन्याय, अत्याचार, अनाचार सभी तरीकों से जल्दी से जल्दी धनवान बनने की कोशिश में है। नकली दवाइयाँ बेची जा रही है। जिससे कई बार लोगों की मृत्यु तक हो जाती है। हृदय की संवेदनशीलता के अभाव में बुद्धि निरंकुश और कठोर बन गई है। ऊपर से नीचे तक ऐसा लगता है कि पूरा प्रशासन भ्रष्ट हो गया है। प्रत्येक कार्यालयों में रिश्वत के बिना काम ही नहीं चलता है। अर्थ सभी अनर्थ की खान हैं। भ्रष्टाचार केवल भारत की ही समस्या नहीं है पूरे विश्व की समस्या है। अर्थ का शिकंजा इतना मजबूत है कि बड़े से बड़े आदमी को अपनी पकड़ में ले लेता है। कुछ वर्ष पूर्व चीन में एक आर्थिक घोटाला हुआ। चीन में साम्यवादी शासन प्रणाली है। इतनी नियंत्रित प्रणाली में भी आर्थिक घोटाला आश्चर्य की बात है । जापान लोकतंत्रीय प्रणाली से शासित है, वहाँ भी आर्थिक घोटाला। भारत के लोकतंत्र का चाँद तो शायद पूरी तरह भ्रष्टाचार के राहु से ग्रसित है। हमारा मुख्य उद्देश्य किन देशों में कितना भ्रष्टाचार है यह बताना न होकर भ्रष्टाचार क्यों और उसकी निवृत्ति के क्या उपाय हो सकते हैं, यह बताना ही हमारा मुख्य ध्येय है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यदि हम भ्रष्टाचार के कारणों का विश्लेषण करें तो उसका मुख्य कारण उपभोक्तावादी संस्कृति और भौतिकवादी जीवनदृष्टि ही उसका मुख्य कारण है विगत शताब्दियों में भोगोपभोग के साधनों या विलासिता की वस्तुओं की जितनी अधिक मात्रा में वृद्धि हुई है और व्यक्ति की आध्यात्मिक आस्था शिथिल हुई है, भ्रष्टाचार उतना अधिक बढ़ा ही है। व्यक्ति भ्रष्टाचार तब करता है जब भोगोपभोग के विपुल विलासिता पूर्ण साधनों को देखकर उनको प्राप्त करने की इच्छा जन्म लेती है किंतु दूसरी ओर अर्थाभाव या आय के सीमित साधनों के कारण उनको प्राप्त करने में असमर्थ रहता है तो वह येन केन प्रकारेण नैतिक अनैतिक रूप से धन प्राप्त करके या अन्य किसी उपाय से उन साधनों को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। बस यहीं भ्रष्टाचार का जन्म होता है । भोगोपभोग के विपुल साधन, बढ़ती हुई तृष्णा या भोगाकांक्षा तथा आदर्श जीवन मूल्यों के प्रति निष्ठा का अभाव यही भ्रष्टाचार के मूलभूत कारण है। भ्रष्टाचार के निराकरण के लिए सर्वप्रथम व्यक्ति की जीवनदृष्टि में परिवर्तन आवश्यक है। जब तक जीवन में भोगाकांक्षा रहेगी और उसकी पूर्ति के लिए धन का अभाव रहेगा तब तक भ्रष्टाचार का निराकरण संभव नहीं है। वस्तुतः जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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