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________________ ४२०/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री (५) विश्वव्यापी पर्यावरण प्रदूषण की समस्या : पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर संकट है पूरी पृथ्वी के लिए सम्पूर्ण मानव जाति के लिए। जहाँ तक पर्यावरण की शुद्धि का प्रश्न है प्राणीमात्र के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। आज न जल शुद्ध मिल रहा है न वायु शुद्ध मिल रही है। जिधर देखों उधर धुएं के अंबार है, जहरीली गैस हवा में धुली हुई है। हमारे औद्योगिक संस्थान प्रगति के सोपान होकर भी प्रदूषण के जनक है। मिलों, कारखानों से जो निरन्तर उत्पादन हो रहा है उससे हमारी सुख सुविधाएं जुटाई जा रही है लेकिन हमें मालूम नहीं है कि इन कल-कारखानों से होने वाले प्रदूषण ने हमारे लिए तथा अन्य प्राणियों के अस्तित्त्व के लिये कितनी समस्याएं पैदा की हैं दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि - “सब्वे जीवा वि इच्छंति जीविऊ न मरिज्जिऊ"८८ अहिंसा का विज्ञान यही है कि संसार में सभी प्राणी जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता। सभी को इस संसार में जीने का हक है। हमें क्या अधिकार है, अपने सुख के लिए दूसरें प्राणियों की जान लेने की। आज कारखानों, मिलों से जो गंदा प्रदूषित जल या जहरीली गैस निकलती है वह पशु पक्षियों और मनुष्यों के लिए हानिकारक है। सुख में आसक्त मानव इस बात की घोर उपेक्षा कर रहा है। नदियों में इतना प्रदूषित जल आकर मिलता है कि मछलियां मरी हुई ऊपर तैरती दिखाई देती है। कारखानों में पानी का बहुत मात्रा में प्रयोग होता है। जब वह पानी रासायनिक क्रियाओं से गुजरकर बाहर आता है तो इतना प्रदूषित हो जाता हैं कि मनुष्यों के क्या जानवरों तक को पीने लायक नहीं रह जाता है। प्रतिवर्ष लगभग दो लाख व्यक्ति जल प्रदूषण से मर रहे हैं। अमेरीका की इरी झील, स्विट्जरलैंण्ड और जर्मनी के सीमा प्रदेश पर स्थित ज्यूरीच झील को भी भयंकर जल प्रदूषण से होकर गुजरना पड़ा। भारत में बम्बई जैसे शहरों में जल प्रदूषण इतनी तीव्रता से बढ़ रहा है कि वहां के समुद्र तट में स्नान करना भी खतरे से खाली नहीं है। वायुमण्डलीय प्रदूषण का एक गम्भीर पक्ष सामने है। वैज्ञानिक सच्चाई को जानने वाले सब लोग जानते हैं कि -ओजोन की छतरी की सुरक्षा धरती का सांस लेने वाले जीव जगत की सुरक्षा है। इसमें छेद होने का अर्थ हैं पूरी मानव जाति और पूरी जीव जगत् के लिए खतरा पैदा होना। पता चलता है कि ७८८. दशवैकालिक -अध्ययन ६/११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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