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________________ ४१८/साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री और सात अरब अस्सी करोड़ डालर इन वस्तुओं के निरोध के लिए खर्च करने की घोषणा की। इतना बड़ा विश्वव्यापी संकट खड़ा हुआ है। प्रश्न उठता है कि नशा क्यों करते हैं? इसका उत्तर एक ही है वह है तनाव मुक्ति। क्योंकि नशीली वस्तुओं के सेवन से व्यक्ति एक बार तो पूर्ण शान्ति अनुभव करता है वह सारे तनाव को, परेशानियों को भुल जाता हैं किन्तु उसके खतरनाक परिणाम सामने आते हैं। आध्यात्मिक चिंतन में दो पहलुओं से विचार किया गया - एक प्रवृत्ति का पहलू और दूसरा परिणाम का पहलू। कुछ वस्तुएँ या कार्य प्रारंभ में बहुत अच्छे लगते है किन्तु परिणाम में बहुत विकृत बन जाती है जैसे “किंपाक फल दिखने में सुन्दर स्वाद में मधुर किंतु परिणाम मृत्यु, उसी तरह खुजली भी चलती है तो खुजालने में आनंद महसूस होता है किंतु नाखुन के जहर से परिणाम में महावेदना होती है।"७४ कुछ कार्य या वस्तु प्रारंभ में कष्टकारी लगने पर भी परिणाम में भद्र होती है। मादक वस्तुओं का परिहार इसलिए करना चाहिए कि उनका परिणाम अच्छा नहीं होता है। नशा करने से अवसाद (डिप्रेशन), अकर्मण्यता, आलस्य, मतिभ्रम और स्नायविक दुर्बलता, अपराध की प्रवृत्ति ये सारे नशे के बुरे परिणाम है। तम्बाकू पीने से फेफड़े और हृदय के कैंसर का खतरा रहता है। कोई भी नशीला पदार्थ ऐसा नहीं है, जो शरीर के किसी न किसी अवयव को क्षतिग्रस्त और नष्ट नहीं करता हो। योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्य ने मदिरा के दोषों को बताते हुए उसका त्याग करने की प्रेरणा दी है। उन्होंने कहा है कि “अग्नि के कण से घास का समूह जैसे नष्ट हो जाता है उसी प्रकार मदिरा से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, पवित्रता, दया और क्षमा उन सबका नाश हो जाता है। मद्य दोषों का कारण है, सभी दुःखों का कारण है इसलिए जिस तरह रोगातुर व्यक्ति अपथ्य का त्याग करता है उसी तरह हितेच्छु को मदिरा का त्याग करना चाहिए।"८५ भगवान महावीर ने चार महा विकृतियों में मद्य को स्थान देकर उसका त्याग करने का निर्देश दिया है। ७८४. भुजंता महुरा विवागविरसा, किंपाग तुल्ला इमे कच्छूकंडुअणव दुक्खजणया, दाविंति बुद्धिं सुहे। - इंद्रियपराजयशतक ७८५. विवेकः संयमो ज्ञानं सत्यं शौचं दया क्षमा। मद्यात्प्रलीयते सर्व तृण्या वन्हिकणादिव।।१६ ।। दोषाणां कारणं मद्यं मद्यं कारणपामदाम् ।। रोगातुरइवापथ्यं तस्मान्मद्यं विवर्जयेत् ।।१७। योगशास्त्र ३/१६, १७, आचार्य हेमचन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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