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________________ ३८६ / साध्वी प्रीतिदर्शनाश्री किन्तु यह उपशम अल्पकालीन होता है। मोह के पुनः प्रकट होने पर जीव नीचे की भूमिकाओं में आ जाता है। क्षपकश्रेणी से चढ़ने वाला जीव मोहनीयकर्म का क्षय करते-करते ८-६-१०-१२ वें से सीधा तेरहवें गुणस्थानक पर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है। क्षीणमोह का अवरोह नहीं होता है इस गुणस्थानक पर जीव पाँच अपूर्व कार्य करता है- १. स्थितिघात २. रसघात ३. गुणश्रेणी ४. गुणसंक्रम ५. अपूर्वस्थितिबंध। यह समस्त क्रिया अपूर्वकरण के नाम से जानी जाती है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार पहले से सातवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में नियति की प्रधानता प्रतीत होती है और आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में पुरुषार्थ का प्राधान्य प्रतीत होता है। - ६. अनिवृत्तिकरण (बादरसम्पराय गुणस्थान ) – अनिवृत्ति का अर्थ अभेद है । इस गुणस्थानकवर्ती सभी काल के सभी जीवों के एक समय में एकसदृश अध्यवसाय ही होते हैं, अतः अध्यवसाय की समानता के कारण इसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहा गया है। इस गुणस्थान पर जीव मोहनीयकर्म की २० प्रकृतियों को उपशमित या क्षय करता है। १०. सूक्ष्मसम्पराय - इस गुणस्थानवर्ती जीव में मात्र सूक्ष्म लोभरूप कषाय का ही उदय रहता है। आध्यात्मिक - पतन के कारणों में मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय शेष रहने के कारण इसे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान कहा गया है। डॉ. टाटिया के शब्दों में आध्यात्मिक विकास की उच्चता में रहे हुए इस सूक्ष्म लोभ की व्याख्या अवचेतन रूप में शरीर के प्रति रहे हुए राग के अर्थ में की जा सकती है। आठवें, नवें और दसवें गुणस्थान का काल उपशमश्रेणी के आश्रयी जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अंतर्मुहूर्त्त ही होता है। 99. उपशान्तमोह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास करते हुए वे ही जीव इस गुणस्थानक पर आते हैं, जो उपशमश्रेणी से आरोहण करते हैं। यह आत्मोत्कर्ष की वह अवस्था है, जहाँ से पतन निश्चित होता है। जैसे गंदे जल में कतकफल ( फिटकरी) घुमाने से गंदगी नीचे बैठ जाती है और ऊपर स्वच्छ जल रह जाता है, वैसे ही उपशमश्रेणी में शुक्लध्यान से मोहनीयकर्म जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त कर दिया जाता है, जिससे जीव के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002747
Book TitleYashovijayji ka Adhyatmavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPreetidarshanashreeji
PublisherRajendrasuri Jain Granthmala
Publication Year2009
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size19 MB
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