________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद / ३३
लाभविजयजी, कीर्तिरत्न गणि, तत्त्वविजय, रविविजय - इस प्रकार सात मुनिभगवंतों ने मिलकर 'अठारह हजार श्लोकों की हस्तप्रति की नकल तैयार कर ली।
यह विरल उदाहरण उनकी श्रुतभक्ति की सुंदर प्रतीति कराता है। श्रुभक्ति की आराधना के लिए यशोविजयजी का प्रियमंत्र 'ऐं नमः' था।
यशोविजयजी महाराज ने स्वयं जो रचना की, उनमें से स्वहस्तलिखित तीस से अधिक हस्तप्रतियाँ अलग-अलग भंडारों से मिली है। प्राचीन समय के एक ही लेखक की स्वयं के हाथों लिखी इतनी प्रतियों का मिलना अपने आप में अत्यंत विरल और गौरवपूर्ण उदाहरण है।
इससे पता चलता है कि स्वयं इतने ग्रंथों की रचना करने के बाद भी इन्होंने हस्तप्रतियाँ तैयार करने में कितना समय दिया होगा। कैसा निष्प्रमादी उनका जीवन होगा।
साहित्य-साधना
उपाध्याय यशोविजयजी ने नव्यन्याय, व्याकरण - साहित्य, अलंकार, छंद, काव्य, तर्क, आगम, नय प्रमाण, योग, अध्यात्म, तत्त्वज्ञान, आचार, उपदेश कथाभक्ति तथा सिद्धान्त इत्यादि अनेक विषयों पर संस्कृत, प्राकृत और गुजराती भाषा में तथा ब्रज और राजस्थानी की मिश्रभाषा में विपुल साहित्य का सर्जन किया है। इनकी कृतियों में, सामान्य मनुष्य भी समझ सके इतनी सरल कृतियाँ भी हैं और प्रखर विद्वान् भी सरलता से नहीं समझ सके, ऐसी रहस्यवाली कठिन कृतियाँ भी हैं।
यशोविजयजी के सृजन और पांडित्य की गहराई तथा विशालता के विषय में प्रसिद्ध जैन चिन्तक पंडित सुखलालजी का कथन है कि शैली की दृष्टि से उनकी कृतियाँ खंडनात्मक भी हैं, प्रतिपादनात्मक भी हैं और समन्वयात्मक भी। जब वे खण्डन करते हैं, तब पूरी गहराई तक पहुँचते हैं। उनका विषय प्रतिपादन सूक्ष्म और विशद है। वे जब योगशास्त्र या गीता आदि के सूक्ष्म तत्त्वों का जैन मन्तव्य के साथ समन्वय करते हैं, तब उनके गंभीर चिन्तन का और आध्यात्मिक भाव का पता चलता है। उनकी अनेक कृतियाँ किसी अन्य ग्रन्थ की व्याख्या न होकर मूल, टीका या दोनों रूप से स्वतंत्र ही हैं; जबकि अनेक कृतियाँ प्रसिद्ध पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों की व्याख्या रूप है।
Jain Education International,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org