________________
उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/ ३८१
द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव पतोन्मुख है। आत्मा प्रथम गुणस्थान से सीधे दूसरा गुणस्थान प्राप्त नहीं करती है, किन्तु ऊपर के गुणस्थानों से पतित होने वाली आत्मा ही इसकी अधिकारिणी बनती है, अतः दूसरा गुणस्थान आरोहण क्रम से नहीं बल्कि अवरोहण क्रम से प्राप्त होता है। समवायांगवृत्ति में कहा गया है"अनंतानुबंधीकषाय के उदय से वह औपशमिकसम्यक्त्व से गिरता है। वह समय, अर्थात् एक समय से ६ आवलिकापर्यन्त हो सकता है। इस काल में वह द्वितीय गुणस्थान पर रहता है। उक्त काल के पूर्ण होते ही मिथ्यात्वकर्म का उदय हो जाता है और वह प्रथम गुणस्थान को प्राप्त कर मिथ्यादृष्टि हो जाता है।"७३२ ३. मिश्रगुणस्थान - "जिसकी दृष्टि मिथ्या और सम्यक्- दोनों परिणामों से मिश्रित है, वह मिश्रदृष्टि या सम्यक् मिथ्यादृष्टि कहलाता है।"७३२ तीसरा गुणस्थान
आत्मा उत्क्रान्ति के समय भी और अवक्रान्ति के समय भी, इस प्रकार दोनों स्थितियों में प्राप्त कर सकती है, किन्तु यहाँ ध्यान रखने योग्य है कि प्रथम गुणस्थान से तृतीय गुणस्थान पर वे ही आत्माएँ आरोहण कर सकती हैं, जिन्होंने कभी चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श किया हो। कहने का आशय यह है कि चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध कर पुनः जो प्रथम गुणस्थान में आई हुई हैं, वे आत्माएँ ही मिश्रपुंज का उदय होने पर तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकती हैं, लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व का स्पर्शन ही नहीं किया हो, वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से चतुर्थ में ही आती हैं, क्योंकि संशय उसे ही हो सकता है, जिसने यथार्थता का कुछ अनुभव किया हो। मिश्र अवस्था एक अनिश्चय की अवस्था है, जिसमें आत्मा सत्य और असत्य के बीच झूलती रहती है। दूसरे शब्दों में कहें तो मिश्रगुणस्थानवी जीव को जिनवाणी पर न श्रद्धा होती है, न अश्रद्धा। "जैसे दही और मिश्री के मिश्रण से निर्मित हुए श्रीखण्ड का स्वाद न केवल दहीरूप होता है, न मिश्रीरूप, किन्तु दोनों के स्वाद से पृथक्
भवतीति इदं सास्वादनमुच्यते इति। - अभिधानराजेन्द्रकोष-भाग ७, पृ.- ७६४
उवसमसंमत्ताओ मिच्छं अपानमाणस्स सासायणसंमत्तं तदंतरालंमि छावलियं ।।१।। -समवायांगवृत्ति- पत्र-२६ (क) कर्मग्रन्थ-२, स्वोपज्ञवृत्ति पृ. ७० (ख) गोम्मटसार जीवकाण्ड (ग) सं. पंचसंग्रह १/२२
७३३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org