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उपाध्याय यशोविजयजी का अध्यात्मवाद/५
ममाशीर्वचनम्
परम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी की परम्परा में जितने भी आचार्य/मुनिराज हुए हैं, उनमें से अधिकांश ने अपनी साधना के साथ ज्ञानार्जन के क्षेत्र में भी कीर्तिमान स्थापित किये हैं। उन्होंने अपने अध्ययन मनन और चिन्तन से जो ज्ञान प्राप्त किया, उसे अपने तक सीमित न रखते हुए अपने प्रवचनों के माध्यम से जन-जन में वितरित किया है, साथ ही उसे पुस्तिका का स्वरूप प्रदान कर स्थायी रूप से जिज्ञासुओं के लिए उपलब्ध कराया। स्मरण रहे कि यदि ये आचार्य जिनवाणी आगम साहित्य के रूप में हमें उपलब्ध नहीं कराते तो आज इस ज्ञान-निधि से हम वंचित रहते।
जैनाचार्यों ने यद्यपि जैन विद्या के लगभग सभी पक्षों पर अधिकारपूर्वक लिखा है तथापि उनका मूलचिन्तन आत्मा से सम्बन्धित रहा है और आत्मा को केन्द्र में रखकर जो चिन्तन किया जाता है, वह अध्यात्म है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि जैनाचार्यों के चिन्तन का विषय मूल रूप से अध्यात्म ही रहा है। इतर विषयों पर तो उन्होंने स्वान्तः सुखाय अथवा जनता को जानकारी उपलब्ध करवाने के लिए लिखा। जैनाचार्यों द्वारा लिखित साहित्य आज हमारी अमूल्य धरोहर है।
इतना ही नहीं अनेक जैनाचार्यों ने विभिन्न राजा/महाराजाओं को प्रतिबोध देकर अपने-अपने राज्य में कुछ समय सीमा में आखेट आदि न करने के फरमान भी जारी करवाये, जो अहिंसा धर्म की स्थापना की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। हमारी आचार्य परम्परा में प्रख्यात आचार्य श्री हीर विजय सूरीश्वरजी म.सा. हुए हैं, जिन्होंने मुगल सम्राट अकबर को प्रतिबोध प्रदान किया था। इन्हीं आचार्यश्री की शिष्य परम्परा में मुनिश्री जयविजयजी म.सा. हुए हैं। इन्हीं मुनिश्री जयविजयजी म.सा. के सुशिष्यरत्न उपाध्याय श्री
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