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८० - जैन योग हैं । जो प्रिय व्यक्ति है उसका सब-कुछ सह लेते हैं । प्रिय व्यक्ति रहता है तब भी दुःख देता है और चला जाता है तब भी दुःख देता है । वह दोनों अवस्थाओं में दुःखदायी होता है । अप्रिय व्यक्ति कोई दुःख नहीं देता । हमारी कितनी बड़ी भ्रांति है कि जो दुःख देता है उसे हम मित्र मान लेते हैं, प्रिय मान लेते हैं और जो दुःख नहीं देता उसे हम शत्रु मान लेते हैं, अप्रिय मान लेते हैं । सम्यग् दर्शन होते ही सुख और दुःख ही सारी धारणा ही बदल जाती है । तब हम सुख उसी को मानते हैं जो दुःख के संस्कार को समाप्त कर देता है । निर्जरण सुख है । निर्जरण का अर्थ है- संस्कारों की समाप्ति | संस्कार वह है जो फिसलता है, फिर चाहे वह प्रिय व्यक्ति का संस्कार हो या अप्रिय व्यक्ति का संस्कार हो ।
जब समस्या आती है, कठिनाई आती है, तब सारा दोष परिस्थिति, वातावरण या निमित्त का मान लिया जाता है । मनुष्य में जितनी विकृतियां होती हैं, उनकी उत्पत्ति निमित्तों के कारण मान ली जाती है | निमित्तों का वातावरण पर उनकी उत्पत्ति का आरोपण कर दिया जाता है । किंतु सम्यग् दर्शन के घटित होने पर ऐसा नहीं होता । तब व्यक्ति उस विकृति के उपादान की खोज करता है । वह परिस्थिति या वातावरण के घेरे से मुक्त होकर उपादान की खोज में निकल पड़ता है। रोग का उपादन-कर्म
हम बीमारी के विषय में सोचें । बीमारी की अनेक धारणाएं हैं । एक सिद्धांत है कि बात, पित्त और कफ के दोष से बीमारी होती है । एक सिद्धांत है कि कीटाणु रोग के वाहक होते हैं । एक सिद्धांत है कि शरीर में विजातीय तत्त्वों के संचय से बीमारी होती है । एक सिद्धांत है कि बीमारी का मूल कारण है-कर्म । त्रिदोष, कीटाणु, विजातीय तत्त्व-ये रोग के उपादान नहीं हैं । रोग का उपादान है-कर्म । रोग का उपादान है-संस्कार | कर्म और संस्कार रोग के उपादान हैं, ऐसा नहीं लगता, किंतु गहराई से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि यह सचाई है । इसे इस तर्क से समझें । निमित्तों के होने पर रोग हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता । निमित्तों के होने पर यदि रोग का उपादान प्राप्त है तो रोग हो जाएगा, अन्यथा निमित्त व्यर्थ ही चले जाएंगे |
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