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प्रस्तुति
जैन विद्वानों के सामने यह प्रश्न उपस्थित होता रहता है कि क्या जैन परम्परा में योग मान्य है ? क्या 'योगदर्शन' जैसा कोई ग्रंथ है ? इन दोनों प्रश्नों पर ऐतिहासिक दृष्टि से विमर्श अपेक्षित है |
भारत में तीन मुख्य धर्म परम्पराएं थीं वैदिक, जैन और बौद्ध । अवांतर रूप में अन्य भी अनेक परम्पराएं थीं। उनकी अपनी-अपनी साधना-पद्धति थी । अष्टांगयोग सांख्यदर्शन की साधना-पद्धति है | सभी धर्मों ने अपनी साधना-पद्धति को भिन्न-भिन्न नामों से अभिहित किया था । जैन धर्म की साधना-पद्धति का नाम मुक्ति-मार्ग था | उसके तीन अंग हैं
१. सम्यक्-दर्शन २. सम्यक्-ज्ञान ३. सम्यक्-चारित्र
महर्षि पंतजलि के योग की तुलना में इस रत्नत्रयी को जैन योग कहा जा सकता है। यह बहुत स्पष्ट है कि जैन धर्म की साधना-पद्धति में अष्टांगयोग. के सभी अंगों की व्यवस्था नहीं है । प्राणायाम, धारणा और समाधि का स्पष्ट स्वीकार नहीं है । यम, नियम, आसन, प्रत्याहार और ध्यान-इनका भी योगदर्शन की भांति क्रमिक प्रतिपादन नहीं है । जैन धर्म की साधना-पद्धति स्वतंत्र है, इसलिए उसकी व्यवस्था भी भिन्न है । उत्तराध्ययन के २८वें अध्ययन में मुक्ति-मार्ग का संक्षिप्त किंतु व्यवस्थित प्रतिपादन है । उसके २९, ३० व ३२वें अध्ययन में भी साधना का पथ-निर्देश है | उत्तराध्ययन उत्तरवर्ती आगम है। प्राचीन आगमों में आचारांग (प्रथम) का स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है । उसमें जैन धर्म की साधना-पद्धति का बहुत सूक्ष्म व मार्मिक प्रतिपादन है। सूत्रकृतांग, भगवती व स्थानांग में भी प्रकीर्णरूप से भावना, आसन, ध्यान आदि का निर्देश मिलता है । औपपातिक में तपोयोग का व्यवस्थित प्रतिपादन है । तपोयोग सम्यक्-चारित्र का ही एक प्रकार है ।
आगम-साहित्य में साधना-तत्त्वों के बीज मिलते हैं। उनका विस्तार और
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