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३४ - जैन योग बंधन और मुक्ति
इस प्रकार आत्मा और कर्म-इन दो खोजों ने समूचे अध्यात्म-जगत् को अपने प्रकाश से प्रकाशित किया । कर्म कार्य-कारण के नियम की खोज है । यह उस नियम की खोज है कि किसी संयोग से होने वाली प्रवृत्ति हमेशा बांधती है | स्वाभाविक प्रवृत्ति कभी नहीं बांधती । जहां आत्मा की स्वाभाविक क्रिया है-जानना और देखना, वहां कोई बंधन नहीं होता । किंतु जहां पुद्गल के योग से होने वाली प्रवृत्ति है, वहां बंधन है ।
कर्म जीव से संबंध रखता है और उस संबंध का सूत्र है-कार्मण शरीर या जीव का स्वयं मूर्तिमान् जैसा हो जाना । वर्तमान स्वरूप में जीव मूर्त होता है । इसलिए जीव और कर्म के संबंध-स्थापन में कोई समस्या पैदा नहीं होती ।
हमारा चैतन्य कर्म-पुद्गलों के द्वारा आवृत है । तपोयोग के द्वारा इसे अनावृत किया जा सकता है । हमारा आंनद मोह के द्वारा विकृत बना हुआ है। उसे तपोयोग के द्वारा विशुद्ध किया जा सकता है । हमारी शक्ति अंतराय के द्वारा प्रतिहत हो रही है । उसे तपोयोग के द्वारा निर्बाध किया जा सकता है | हम अतीत में किए हुए को बदल सकते हैं । यही साधना की सबसे बड़ी प्रेरणा है । इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर मनुष्य साधना के क्षेत्र में अपना चरणविन्यास करता है।
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