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२८ - जैन योग है और उसके द्वारा जो पुद्गल खिंचा ही आ आता है, वह है द्रव्य कर्म । वास्तव में जो पुद्गल हैं वे कर्म नहीं हैं । वास्तविक कर्म है-आस्रव । यदि आस्रव न हो, आग प्रज्ज्वलित न हो तो केवल ईंधन कुछ भी नहीं कर सकता। ईंधन आग को तब भभकाता है जब आग प्रज्ज्वलित है | जलती हुई आग में ईंधन डालते चले जाएं, आग भभकती रहेगी । बुझी हुई आग के लिए ईंधन का कोई अर्थ नहीं होता । यदि कषाय न हो, राग-द्वेष न हो तो कर्म का कोई अर्थ नहीं होता | पुद्गल भीतर आएं और चले जाएं, कोई बाधा नहीं आएगी। किंतु हमारे भीतर जो राग और द्वेष की आग जल रही है, कषाय की आग भभक रही है, उस आग में जब ये पुद्गल ईंधन रूप में गिरते हैं, वे आग को और अधिक प्रज्ज्वलित कर देते हैं । आग को प्रज्ज्वलित करने वाले पुद्गल भी कर्म है और जो आग जल रही है, वह भी कर्म है | कषाय बांधता है
कर्म एक नियम है । यह क्रिया के साथ घटित होने वाला सिद्धांत है। हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे या तो राग की प्रेरणा होती है या द्वेष की प्रेरणा होती है । जब-जब राग और द्वेष की प्रेरणा होती है, तब पुद्गल आते हैं उन पुद्गलों को कषाय बांध लेता है | वे बंध जाते हैं । कर्मशास्त्रीय भाषा में प्रवृत्ति या योग कर्मो का आकर्षण करता है, कर्म पुद्गलों को खींचता है । कषाय उनका स्थितिबंध करता है | कर्म का आकर्षण होता है योग या प्रवृत्ति से और उनकी स्थिति का निर्धारण होता है कषाय से । जिनके कषाय नहीं होता जिनके राग-द्वेष क्षीण हो चुके हैं, उनके प्रवृत्ति तो होती है, उससे कर्म पुद्गल भी आते हैं, किंतु वे आते हैं और चले जाते हैं, रुकते नहीं, बंधते नहीं । जैसे सूखी भीत पर सूखी रेत डाली, भीत का स्पर्श कर रेत नीचे गिर जाती है, वैसे ही कर्म के पुद्गल आते हैं और गिर जाते हैं, चले जाते हैं । फिर आते हैं, फिर चले जाते हैं । उनके टिकने का कोई कारण शेष नहीं है । यह क्रम तब तक चलता है जब तक कि पूर्ण बंधन-मुक्ति नहीं हो जाती । कर्म है कार्य, कारण है आस्रव
कर्म क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में हमने यह जाना कि यह एक क्रिया का सिद्धांत है, कार्य-कारण का सिद्धांत है, कार्य-कारण की खोज है कि जो
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