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२२२जैन योग
व्यक्ति
तत्त्व को नहीं
जानने वाला तत्त्वदर्शी
उद्देश्य
पौद्गलिक सुख
आत्मिक विकास के
लिए शरीर धारण
भावना
आसक्त
अनासक्त
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विधि
असंयत
३३. मुनि
• पण्णाणेहिं परियाणइ लोयं, मुणीते बच्चे, धम्मक्उित्ति अंजू । (३/५)
जो पुरुष अपनी प्रज्ञा से लोक को जानता है, वह मुनि कहलाता है । वह धर्मविद् और ऋजु होता है ।
आवट्टसोए संगमभिजाणति । (३/६)
संयत
आत्मवान् मुनि आसक्ति को चक्राकार स्रोत के रूप में देखता है । • सीओसिणच्चाई से निग्गंथे अरइ - रइ - सहे फरुसियं णो वेदेति ॥ (३/७)
निर्ग्रन्थ सर्दी और गर्मी को सहन करता है । वह अरति और रति को सहन करता है - उनसे विचलित नहीं होता । वह कष्ट का वेदन नहीं करता ।
• अहेगे धम्म मादाय आयाणप्पभिदं सुपणिहिए चरे । ( ६ / ३५)
कोई व्यक्ति मुनि-धर्म में दीक्षित होकर, इन्द्रिय और मन को समाहित कर विचरण करता है ।
• अपलीयमाणे दढे | (६ / ३६)
वह अनासक्त और दृढ़ होकर धर्म का आचरण करता है ।
• सव्वं गेहिं परिण्णाय, एस पणए महामुणी । (६ / ३७)
समग्र आसक्ति को छोड़कर, धर्म के प्रति समर्पित होने वाला महामुनि होता है ।
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